कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
‘भइया और मुन्नू दादा खलिहान में सोने गए हैं, काका दरवाजे पर पड़े होंगे, उनके कानों पर तोप छूटे तब भी न जागेंगे।’
‘इस कमरे में कोई दूसरी खिड़की भी तो नहीं है कि बाहर आवाज पहुंचे। मकान है या कैदखाना’
‘मैं तो चिल्लाती हूं।’
‘अरे नहीं भाई, क्यों जान देने पर तुली हो। मैं तो सोचता हूं, हम दोनों चुपचाप लेट जाएं और आंखें बन्द कर लें। बदमाशों को जो कुछ ले जाना हो ले जाएं, जान तो बचे। देखो किवाड़ हिल रहे हैं। कहीं टूट न जाएं। हे ईश्वर, कहां जाएं, इस मुसीबत में तुम्हारा ही भरोसा है। क्या जानता था कि यह आफत आने वाली है, नहीं आता ही क्यों? बस चुप्पी ही साध लो। अगर हिलाएं-विलाएं तो भी सांस मत लेना।’
‘मुझसे तो चुप्पी साधकर पड़ा न रहा जाएगा।’
‘जेवर उतारकर रख क्यों नहीं देती, शैतान जेवर ही तो लेंगे।’
‘जेवर तो न उतारूंगी चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय।’
‘क्यों जान देने पर तुली हुई हो?’
खुशी से तो जेवर न उतारूंगी, जबर्दस्ती और बात है’
खामोशी, सुनो सब क्या बातें कर रहे हैं।’
बाहर से आवाज आई- किवाड़ खोल दो नहीं तो हम किवाड़ तोड़ कर अन्दर आ जाएंगे। गजेन्द्र ने श्यामदुलारी की मिन्नत की- मेरी मानो श्यामा, जेवर उतारकर रख दो, मैं वादा करता हूं बहूत जल्दी नये जेवर बनवा दूंगा।
बाहर से आवाज आई- बस एक मिनट की मुहलत और देते हैं, अगर किवाड़ न खोले तो खैरियत नहीं।
गजेन्द्र ने श्यामदुलारी से पूछा- खोल दूं?
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