कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
‘हां, बुला लो तुम्हारे भाई-बन्द हैं? वह दरवाजे को बाहर से ढकेलते हैं, तुम अन्दर से बाहर को ठेलो।’
‘और जो दरवाजा मेरे ऊपर गिर पड़े? पांच-पांच जवान हैं!’
‘वह कोने में लाठी रखी है, लेकर खड़े हो जाओ।’
‘तुम पागल हो गई हो।’
‘चुन्नी दादा होते तो पांचों को गिराते।’
‘मैं लट्टाबाज नहीं हूं।’
‘तो आओ मुंह ढांपकर लेट जाओ, मैं उन सबों से समझ लूंगी।’
‘तुम्हें तो औरत समझकर छोड़ देंगे, माथे मेरे जाएगी।’
‘मैं तो चिल्लाती हूं।’
‘तुम मेरी जान लेकर छोड़ोगी!
‘मुझसे तो अब सब्र नहीं होता, मैं किवाड़ खोल देती हूं।’
उसने दरवाजा खोल दिया। पांचों चोर कमरे में भड़भड़ाकर घुस आए। एक ने अपने साथी से कहा- मैं इस लौंडे को पकड़े हुए हूं तुम औरत के सारे गहने उतार लो।
दूसरा बोला- इसने तो आंखों बन्द कर लीं। अरे, तुम आंखें क्यों नहीं खोलती जी?
तीसरा-यार, औरत तो हसीन है!
चौथा- सुनती है ओ मेहरिया, जेवर दे दे नहीं गला घोंट दूंगा।
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