कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
तीसरा- अच्छा तो चल। हम इसे इसे छोड़ देते है। दोनों चोरों ने गजेन्द्र को लाकर चारपाई पर लिटा दिया और श्यामदुलारी को लेकर चल दिए। कमरे में सन्नाटा छा गया। गजेन्द्र ने डरते-डरते आंखें खोलीं, कोई नजर न आया। उठकर दरवाजे से झांका। सहन में भी कोई न था। तीर की तरह निकलकर सदर दरवाजे पर आए लेकिन बाहर निकलने का हौसला न हुआ। चाहा कि सूबेदार साहब को जगाएं, मुंह से आवाज न निकली। उसी वक्त कहकहे की आवाज आई। पांच औरतें चुहल करती हुई श्यामदुलारी के कमरे में आईं। गजेन्द्र का वहां पता न था।
एक- कहां चले गए?
श्यामदुलारी- बाहर चले गए होगें।
दूसरी- बहुत शर्मिन्दा होंगे।
तीसरी- डर के मारे उनकी सांस तक बन्द हो गई थी।
गजेन्द्र ने बोलचाल सुनी तो जान में जान आई। समझे शायद घर में जाग हो गईं। लपककर कमरे के दरवाजे पर आए और बोले- जरा देखिए श्यामा कहां हैं, मेरी तो नींद ही न खुली। जल्द किसी को दौड़ाइए।
यकायक उन्हीं औरतों के बीच में श्यामा को खड़े हंसते देखकर हैरत में आ गए। पांचों सहेलियों ने हंसना और तालियां पीटना शुरू कर दिया।
एक ने कहा- वाह जीजा जी, देख ली आपकी बहादुरी।
श्यामदुलारी- तुम सब की सब शैतान हो।
तीसरी- बीवी तो चारों के साथ चली गईं और आपने सांस तक न ली!
गजेन्द्र समझ गए, बड़ा धोखा खाया। मगर जबान के शेर फौरन बिगड़ी बात बना ली, बाले- तो क्या करता, तुम्हारा स्वांग बिगाड़ देता! मैं भी इस तमाशे का मजा ले रहा था। अगर सबों को पकड़कर मूंछें उखाड़ लेता तो तुम कितनी शर्मिन्दा होतीं। मैं इतना बेहरहम नहीं हूं।
सब की सब गजेन्द्र का मुंह देखती रह गईं।
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