कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
मथुरा ने कहा- यह मेरा लड़का है।
दुलारी ने बालक को गोद में चिपटा कर कहा- हाँ, है क्यों नहीं। तुम्हीं ने तो नौ महीने पेट में रखा है। साँसत तो मेरी हुई; बाप कहलाने के लिए तुम कूद पड़े।
मथुरा- मेरा लड़का न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता। चेहरा-मोहरा, रंग-रूप सब मेरा ही सा है कि नहीं?
दुलारी- इससे क्या होता है। बीज बनिये के घर से आता है। खेत किसान का होता है। उपज बनिये की नहीं होती, किसान की होती है।
मथुरा- बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा हो जायगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूँगा।
दुलारी- मेरा लड़का पढ़े-लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पायेगा। तुम्हारी तरह दिन भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन का कहना है, कल एक पालना बनवा दें।
मथुरा- अब बहुत सबेरे न उठा करना और छाती फाड़ कर काम भी न करना।
दुलारी- यह महारानी जीने देंगी?
मथुरा- मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसके कौन बैठा हुआ है? हमी लोगों के लिए मरती है। भैया होते; तो अब तक दो-तीन बच्चों की माँ हो गयी होती।
प्यारी के कंठ में आँसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह काँप उठी। अपना वंचित जीवन उसे मरूस्थल-सा लगा, जिसकी सूखी रेत पर वह हरा-भरा बाग लगाने की निष्फल चेष्टा कर रही थी।
सहसा शिवदत्त ने भीतर आ कर कहा- बड़ी बहू, क्या सो गयी! बाजेवालों को अभी परोसा नहीं मिला। क्या कह दूँ!
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