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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


कुछ दिनों के बाद शिवदत्त भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हए। वह अधिकतर बच्चों के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। खेती का काम मजदूरों पर आ पड़ा। मथुरा मजदूर तो अच्छा था, संचालक अच्छा न था। उसे स्वतन्त्र रूप से काम लेने का कभी अवसर न मिला। खुद पहले भाई की निगरानी में काम करता रहा। बाद को बाप की निगरानी के काम करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजूर उसके यहाँ टिकते थे, जो मेहनत नहीं, खुशामद करने में कुशल होते थे, इसलिए प्यारी को अब दिन में दो-चार चक्कर हार के भी लगाना पड़ता। कहने को वह अब भी मालकिन थी, पर वास्तव में घर भर की सेविका थी। मजूर भी उससे त्योरियाँ बदलते, जमींदार का प्यादा भी उसी पर धौंस जमाता। भोजन में किफ़ायत करनी पड़ती; लड़कों को तो जितनी बार माँगें, उतनी बार कुछ-न-कुछ चाहिए। दुलारी तो लड़कौरी थी, उसे भी भरपूर भोजन चाहिए। मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था? मजूर भला क्यों रियायत करने लगे थे। सारी कसर प्यारी पर निकलती थी। वही एक फालतू चीज थी; अगर आधा पेट खाय, तो किसी को हानि न हो सकती थी। तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गये, कमर झुक गयी, आँखों की जोत कम हो गयी; मगर वह प्रसन्न थी। स्वामित्व का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता था।

एक दिन मथुरा ने कहा- भाभी, अब तो कहीं परदेश जाने का जी होता है। यहाँ तो कमाई में बरक्कत नहीं। किसी तरह पेट की रोटी चल जाती हैं। वह भी रो-धो कर। कई आदमी पूरब से आये हैं। वे कहते हैं, वहाँ दो-तीन रुपये रोज की मजदूरी हो जाती है। चार-पाँच साल भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊँगा। अब आगे लड़के-बाले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।

दुलारी ने समर्थन किया- हाथ में चार पैसे होंगे, लड़कों को पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। हमारी तो किसी तरह कट गयी, लड़कों को तो आदमी बनाना है।

प्यारी यह प्रस्ताव सुनकर अवाक् रह गयी। उनका मुँह ताकने लगी। इसके पहले इस तरह की बातचीत कभी न हुई थी। यह धुन कैसे सवार हो गयी? उसे संदेह हुआ, शायद मेरे कारण यह भावना उत्पन्न हुई है। बोली- मैं तो जाने को न कहूँगी, आगे जैसी इच्छा हो। लड़कों को पढ़ाने-लिखाने के लिए यहाँ भी तो मदरसा है। फिर क्या नित्य यही दिन बने रहेंगे। दो-तीन साल भी खेती बन गयी, तो सब कुछ हो जायेगा।

मथुरा- इतने दिन खेती करते हो गये, जब अब तक न बनी, तो अब क्या बन जायगी! इसी तरह एक दिन चल देंगे, मन की मन में रह जायगी। फिर अब पौरुख भी तो थक रहा है। यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं इस चक्की में जोत कर उनकी जिन्दगी नहीं खराब करना चाहता।

प्यारी ने आँखों में आँसू ला कर कहा- भैया, घर पर जब तक आधी मिले, सारी के लिए न धावना चाहिए; अगर मेरी ओर से कोई बात हो तो अपना घर-बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूँगी।

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