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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


मथुरा आर्द्र-कंठ हो कर बोला- भाभी, यह तुम क्या कहती हो। तुम्हारे ही सँभाले यह घर अब तक चला है, नहीं रसातल को चला गया होता। इस गिरस्ती के पीछे तुमने अपने को मिटटी में मिला दिया, अपनी देह घुला डाली। मैं अन्धा नहीं हूँ। सब कुछ समझता हूँ। हम लोगों को जाने दो। भगवान् ने चाहा तो घर फिर सँभल जायगा। तुम्हारे लिए हम बराबर खरच-वरच भेजते रहेंगे।

प्यारी ने कहा- तो ऐसी ही है तो तुम चले जाओ, बाल-बच्चों को कहाँ-कहाँ बाँधे फिरोगे?

दुलारी बोली- यह कैसे हो सकता है बहन; यहाँ देहात में लड़के क्या पढ़े-लिखेंगे। बच्चों के बिना इनका जी भी वहाँ न लगेगा। दौड़-दौड़ कर घर आयेंगे और सारी कमाई रेल खा जायगी। परदेश में अकेले जितना खरचा होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।

प्यारी बोली- तो मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगी। मुझे भी लेते चलो।

दुलारी उसे साथ ले चलने को तैयार न थी। कुछ दिन जीवन का आनन्द उठाना चाहती थी; अगर परदेश में भी यह बंधन रहा, तो जाने से फायदा ही क्या। बोली-बहन, तुम चलतीं तो क्या बात थी, लेकिन फिर यहाँ का कारोबार तो चौपट हो जायगा। तुम तो कुछ न कुछ देख-भाल करती ही रहोगी।

प्रस्थान की तिथि के एक दिन पहले ही रामप्यारी ने रात-भर जागकर हलुआ और पूरियाँ पकायीं। जब से इस घर में आयी, कभी एक दिन के लिए अकेले रहने का अवसर नहीं आया। दोनों बहनें सदा साथ रहीं। आज उस भयंकर अवसर को सामने आते देखकर प्यारी का दिल बैठा जाता था। वह देखती थी, मथुरा प्रसन्न है, बाल-वृन्द यात्रा के आनन्द में खाना-पीना तक भूले हए हैं, तो उसके जी में आता, वह भी इसी भाँति निद्वन्द्व रहे, मोह और ममता को पैरों से कुचल डाले; किन्तु वह ममता जिस खाद्य को खा-खा कर पली थी, उसे अपने सामने से हटाये जाते देखकर क्षुब्ध होने से न रुकती थी, दुलारी तो इस तरह निश्चिन्त होकर बैठी थी. मानो कोई मेला देखने जा रही है। नयी-नयी चीजों को देखने, नयी दनिया में विचरने की उत्सुकता ने उसे क्रियाशून्य-सा कर दिया था। प्यारी के सिर सारे प्रबन्ध का भार था। धोबी के घर से सब कपड़े आये हैं, या नहीं, कौन-कौन-से बरतन साथ जायँगे, सफर-खर्च के लिए कितने रुपयों की जरूरत होगी। एक बच्चे को खाँसी आ रही थी, दूसरे को कई दिन से दस्त आ रहे थे, उन दोनों की औषधियों को पीसना-कूटना आदि सैकड़ों ही काम व्यस्त किये हुए थे। लड़कोरी न होकर भी वह बच्चों के लालन-पोषण में दुलारी से कुशल थी। ‘देखो बच्चों को बहुत मारना-पीटना मत। मारने से बच्चे जिद्दी या बेहया हो जाते हैं। बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता है, कभी उनके साथ खेलना पड़ता है, कभी हँसना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चे चुपचाप बैठे रहें, हाथ-पैर न हिलायें, तो यह हो नहीं सकता। बच्चे तो स्वभाव के चंचल होते हैं। उन्हें किसी न किसी काम में फंसाये रखो। धेले का खिलौना हजार घुड़कियों से बढ़कर होता है।' दुलारी उपदेशों को इस तरह बेमन होकर सुनती थी, मानों कोई सनक कर बक रहा हो।

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