कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
'तब घर में दो जवान काम करने वाले थे।'
'मैं अकेला उन दोनों के बराबर खाता हूँ। दोनों के बराबर काम क्यों न करूँगा?
'चल, झूठा कहीं का। कहते थे, दो सेर खाता हूँ, चार सेर खाता हूँ। आधा सेर में रह गये।'
'एक दिन तौलो तब मालूम हो।'
'तौला है। बड़े खानेवाले! मैं कहे देती हूँ धान न रोपो मजूर मिलेंगे नहीं, अकेले हलाकान होना पड़ेगा।
'तुम्हारी बला से मैं ही हलाकान हूँगा न? यह देह किस दिन काम आयेगी।'
प्यारी ने उसके कंधे पर से फावड़ा ले लिया और बोली- तुम पहर रात से पहर रात तक ताल में रहोगे, अकेले मेरा जी ऊबेगा।
जोखू को जी ऊबने का अनुभव न था। कोई काम न हो, तो आदमी पड़ कर सो रहे। जी क्यों ऊबे? बोलाजी ऊबे तो सो रहना। मैं घर रहूँगा, तब तो और जी ऊबेगा। मैं खाली बैठता हूँ तो बार-बार खाने की सूझती है। बातों में देर हो रही है और बादल घिरे आते हैं।
प्यारी ने हार कर कहा- अच्छा, कल से जाना, आज बैठो।
जोखू ने मानो बन्धन में पड़ कर कहा- अच्छा, बैठ गया, कहो क्या कहती हो?
प्यारी ने विनोद करते हुए पूछा- कहना क्या है, मैं तुमसे पूछती हूँ, अपनी सगाई क्यों नहीं कर लेते? अकेली मरती हूँ। तब एक से दो हो जाऊँगी।
जोखू शरमाता हुआ बोला- तुमने फिर वही बेबात की बात छेड़ दी, मालकिन! किससे सगाई कर लूँ यहाँ? मैं ऐसी मेहरिया लेकर क्या करूँगा, जो गहनों के लिए मेरी जान खाती रहे।
प्यारी- यह तो तुमने बड़ी कड़ी शर्त लगायी। ऐसी औरत कहाँ मिलेगी, जो गहने भी न चाहे?
जोखू- यह मैं थोड़े ही कहता हूँ कि वह गहने न चाहे; हाँ, मेरी जान न खाय। तुमने तो कभी गहनों के लिए हठ न किया; बल्कि अपने सारे गहने दूसरों के ऊपर लगा दिये।
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