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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रचार-युग में हास-परिहास, मनोरंजन, वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ, अतीत का गौरव-गान और पर्व-त्योहार आदि के महत्व के द्वारा भारतभक्ति ही इस युग का मुख्य विषय रहा। इस युग की भाषा में प्रान्तीयता का पुट व व्याकरण की त्रुटियाँ हैं। हिन्दी में नाटकों का प्रादुर्भाव इसी युग में हुआ। निबन्ध, आलोचना, कहानी आदि का सूत्र-पात भी इसी समय हुआ।

महावीरप्रसाद द्विवेदी के संस्कार-युग में प्रबन्ध-काव्यों के द्वारा प्राचीन गौरव का बखान, सात्विकता, सदाचार, भाषा व भावों का संस्कार आदि विषय मुख्य रहे। इस युग में आचार्य श्री पं० महावीरप्रसाद जी द्विवेदी के भगीरथ प्रयत्नों से खड़ीबोली के गद्य का रूप संस्कृत होकर स्थिर हो गया और पद्य में भी खड़ीबोली का प्रयोग धड़ल्ले के साथ होने लगा। उच्च कोटि के साहित्यिक नाटक, निबन्ध, समा-लोचना आदि इसी समय लिखे जाने लगे। 

जयशंकर प्रसाद के छायावाद-युग में उस अज्ञात (या ज्ञात) प्रियतम के प्रति आत्म-निवेदन, विरह और मिलन के गीत, प्रकृति का मानव-रूप में चित्रणात्मक छायावाद, आत्मा और परमात्मा की अद्वैतता-प्रतिपादक रहस्यवाद, आत्मा की आध्यात्मिक मस्ती को प्रकट करने वाला हालावाद, दुःख-सुख के समन्वयमूलक दार्शनिक भाव एवं अखंड मानवता की महिमा के साथ भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग आदि विषयों का प्राधान्य रहा। इस युग में खड़ीबोली की कठोरता दूर हुई और वह कोमलकान्त पदावलि से युक्त होकर अत्यन्त मृदुल हो गई।

प्रगतियुग में पीड़ित मानवता की पुकार को कवि ने अपनी कला में स्थान दिया। शोषित, श्रमिक मजदूर और कृषक की करुण कहानी काव्य में सुनाई देने लगी। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद आदि शोषक तत्वों के विरुद्ध भावना भड़क उठी। कविता कल्पना के लोक से नीचे उतर कर दृढ़ भूमि पर विचरण करने लगी। भाषा व भावों की कल्पनात्मकता व छुई-मुई-सी सुकोमलता के स्थान पर दृढ़ता व कठोरता आ गई। इस प्रकार साहित्य का जीवन से सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया।

आधुनिक काल के १. प्रचार-युग, २. संस्कार-युग, ३. सुकुमार-युग और ४. प्रगति-युग-इन चारों युगों की प्रकृतियों व काव्य-परम्परा का विवेचन इस प्रकार है।

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