भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
|
0 |
हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
भारतेन्दु-प्रचार-युग
यद्यपि आधुनिक युग का प्रारम्भ भारतेन्दुजी से माना जाता है, तथापि इस युग के साहित्य के महत्वपूर्ण अङ्ग गद्य-का प्रादुर्भाव भारतेन्दुजी से बहुत पहले ही हो चुका था। अत: यहाँ भारतेन्दुजी से पहले के गद्य का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है।
गोस्वामी विट्ठलनाथजी ने 'शृङ्गार-रसमंडन' तथा उनके पुत्र गोकुलजी ने 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' और दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' नामक रचनाओं के द्वारा सोलहवीं शताब्दी में ही ब्रजभाषा-गद्य की प्रतिष्ठा कर दी थी। किन्तु यह ब्रजभाषा-गद्य की परम्परा आगे विकसित नहीं हो सकी।
गंग कवि ने संवत् १६४० में 'चंद छंद-वर्णन की महिमा' नामक खड़ीबोली का गद्य-ग्रंथ लिखा। आगे चलकर यह खड़ीबोली का ग्रन्थ खूब पल्लवित हुआ।
रामप्रसाद निरंजनी नामक पटियाला के लेखक ने संवत् १५९४ में 'भाषा योगवाशिष्ठ' नामक एक बहुत सुंदर गद्य-ग्रंथ लिखा।
संवत् १८१८ में बसुआ (मध्यप्रदेश) निवासी पंडित दौलतराम ने पद्मपुराण का हिन्दी में अनुवाद किया।
गद्य के चार प्रतिष्ठापक-उन लेखकों की गद्य रचनाओं के आ जाने 'पर भी गद्य की सुव्यवस्थित परम्परा नहीं चली। यह परम्परा उनसे साठ-सत्तर वर्ष बाद तीन- लेखकों के द्वारा प्रारम्भ हुई।
देहली-निवासी-मुंशी सदासुखलाल ने 'सुखसागर', लखनऊ निवासी इंशा अल्लाखाँ ने 'रानी केतकी की कहानी', कलकत्ता के फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक लल्लूलाल ने 'प्रेमसागर' व सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' नामक रचनाएँ लिखकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में हिन्दी-गद्य की नींव डाली।
बनारस के राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने 'हिन्दी-गुटका', 'इतिहास तिमिरनाशक' तथा 'बनारस के अखबार' के द्वारा और आगरा के राजा लक्ष्मण सिंह ने 'अभिज्ञान-शाकुन्तल' नाटक व 'मेघदूत' आदि ग्रन्थों के अनुवाद तथा 'प्रजाहितैषी' नामक पत्र के द्वारा हिन्दी-गद्य की महत्वपूर्ण सेवा की।
स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा आर्यसमाज ने सब पुस्तकें हिन्दी में लिखकर या पढ़-पढ़ा कर हिन्दी के प्रचार में हाथ बँटाया। इस हिन्दी-गद्य के प्रचार से ब्रह्मसमाजियों व ईसाई प्रचारकों ने लाभ उठाते हुए अपनी बहुत-सी पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया।
भारतेन्दुजी तथा उनकी मंडली-आधुनिक युग के प्रवर्तक भारतेन्दुजो का विस्तृत परिचय आगे दिया गया है। यहाँ उनकी मंडली के प्रमुख लेखकों का उल्लेख किया जाता है।
बालकृष्ण भट्ट ने 'नूतन ब्रह्मचारी, 'सौ अजान एक सुजान' नामक उपन्यास, सैकड़ों निबन्ध तथा अनेक नाटक लिखे और अपने साप्ताहिक पत्र 'हिन्दी-प्रदीप' में श्रीनिवासदास ने 'संयोगिता-स्वयंवर' नाटक की कड़ी आलोचना कर हिन्दी में समालोचना का सूत्रपात किया।
प्रतापनारायण मिश्र ने 'कलि-कौतुक-रूपक' आदि अनेक नाटक तथा अपने 'ब्राह्मण' नामक पत्र में सैकड़ों उत्कृष्ट निबन्ध लिखे।
बद्रीनारायण चौधरी ने अपने 'नागरी-नीरद' और 'आनन्द-कादम्बिनी' नामक पत्रों में अत्यन्त अलंकृत भाषा में निबन्ध व 'भारत-सौभाग्य' नाटक आदि कई पुस्तकें लिखीं। ये तीनों लेखक वास्तव में भारतेन्दु-मंडली के प्रमुख स्तम्भ और उत्कृष्ट निबन्ध-लेखक थे। हास्य, व्यंग्य और मनोरंजन की भावना इनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। इनके उत्कृष्ट निबन्धों के कारण ही भट्टजी और मिश्रजी को एडिसन और स्टील जैसे उत्कृष्ट अंग्रेजी निबन्धकारों के समकक्ष और चौधरीजी को हिन्दी का बाण कहा गया है।
ठाकुर जगमोहनसिंह, अम्बिकादत्त व्यास, श्रीनिवासदास, पंडित भीमसेन शर्मा आदि इस मंडली के प्रसिद्ध लेखकों ने भी हिन्दी-गद्य-निर्माण में महत्वपूर्ण योग दिया।
|