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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

सत्यलोक-वास-इतना ही नहीं, जन्म-संवत् के समान कबीर के निधन-संवत् के सम्बन्ध में भी मतभेद है। कुछ विद्वान् उनकी मृत्यु १५०० में, दूसरे १५०५ में, तीसरे १५५२ में, चौथे १५७५ में मानते हैं। पर वास्तव में सबसे अधिक प्रचलित उनकी निधन-तिथि १५७५ है, जैसा कि निम्न दोहे में बताया गया है-

संवत् पन्द्रह सै पछतरा, कियाँ मगहर को गौन।
माघ   सुदी   एकादशी,  रलो   पौन  में   पौन।।

निष्कर्ष यह निकला कि संत कबीर के जन्म व निधन क्रमश: १४५५ और १५७५ में ही हुए। यह बहुमत का स्वीकृत पक्ष है।

जाति व जन्म-मरण-स्थान-कबीर के जन्म और निधन के सबद के समान इनके जन्म-स्थान-और जाति-पांति के सम्बन्ध में भी दो विरोधी मत है, जैसे कि-

(१) ऐसी जनश्रुति है कि उनका जन्म किसी विधवा ब्राह्मणी से' हुआ था, जो लोक-लाज के मारे इनको जन्मते ही काशी में लहरतारा तालाब के पास फेंककर चली गई और उन्हें नीरू और नीमा नामक मुस्लिम जुलाहे-दम्पति ने उठाकर पाल-पोस लिया। इस प्रकार संत कबीर जन्म-जात मुसलमान जुलाहे न होकर नीरू और नीमा के 'पालित पुत्र' ठहरते हैं।

(२) कुछ लोग तो यहाँ तक कहते है कि वे स्वामी रामानन्द जी के आशीर्वाद के प्रताप से विधवा ब्राह्मणी के यहाँ उत्पन्न हुए थे।

(३) इस विचार की महत्ता को और भी अधिक बढ़ाते हुए एक किंवदन्ती यहाँ तक प्रसिद्ध हुई कि जब स्वामी रामानन्द जी ने अनजाने में उस विधवा ब्राह्मणी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया और उसने कहा कि महाराज मैं तो विधवा हूँ तो स्वामी जी के वचनानुसार कबीर जी उसकी हथेली के फफोले से उत्पन्न हुए। इसीलिए उनका नाम  'करवीर' अर्थात् हाथ से उत्पन्न हुआ पुत्र रखा गया, जो आगे चलकर  'कबीर' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस प्रकार करवीर 'शब्द' से ही बिगड़कर 'कबीर' शब्द बना। इस पक्ष वाले कबीर नाम की सार्थकता भी बड़े सुन्दर ढंग से प्रमाणित कर देते है।

इन किंवदन्तियों को मानने वाले प्राय: सभी लोग कबीर को विधवा ब्राह्मणी का पुत्र ही मानते हैं।

(४) इसके विषरीत डा० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, डा० रामकुमार वर्मा और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि सभी प्रमुख आलोचकों का मत है कि कबीर वास्तव में नीरू और नीमा नामक मुस्लिम जुलाहा-दम्पति के पालित पुत्र न होकर औरस पुत्र (सगे बेटे) ही थे। हजारीप्रसाद जी का इसमें यह विशेष मत है कि नीरू और नीमा उस वंश में उत्पन्न हुए थे जिनके पूर्वज पहले कभी जुलाहे का काम करने वाले जोगी थे और जो किन्हीं कारणों से मुसलमान हो गये थे। कुछ भी हो, हमें इस बात से कुछ प्रयोजन नहीं कि नीरू और नीमा के पुरखे कैसे जुलाहे थे या वे कब मुसलमान बने थे, हम तो इतना ही कहना चाहते है कि श्री द्विवेदी जी भी कबीर को नीरू और नीमा का सगा बेटा ही मानते हैं, पालित पुत्र नहीं।

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