भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
जाति के समान ही जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भी मतभेद है। निश्चय ही जो लोग उन्हें ब्राह्मणी का पुत्र मानते हैं, वे उनका जन्म-स्थान भी काशी मानेंगे ही,पर जो लोग उन्हें नीरू-नीमा का पुत्र मानते हैं वे उनका जन्म-स्थान भी काशी न मानकर मगहर ही मानते हैं। उनके निधन-स्थान के सम्बन्ध में कोई दो मत नहीं है। यह सर्वसम्मत मत है कि उनकी मृत्यु मगहर ही में हुई थी।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि उक्त दोनों मतों में से कौन सा मत प्रामाणिक है। क्या वे सचमुच विधवा ब्राह्मणी के ही पुत्र थे या नीरू-नीमा के सगे बेटे? इस सम्बन्ध में हम भी डा० बड़थ्वाल आदि आलोचकों से सहमत होते हुए यही मानते हैं कि वे विधवा ब्राह्मणी के पुत्र न होकर नीरू और नीमा के औरस पुत्र ही थे, क्योंकि यदि मान लिया जाय कि वे विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे तो जिसे उस विधवा की ब्राह्मण जाति का पता लगा उसे तो उसका सब कुछ नाम-धाम आदि ज्ञात होना चाहिए था। फिर तो उस सौभाग्यशालिनी माँ (चाहे वह विधवा ही क्यों न रही हो) का बड़े आदर के साथ नाम-स्मरण किया जाता, जिसकी कोख ने कबीर जैसे महामानव को जन्म दिया। और यदि वे सचमुच रामानन्द के वरदान से उत्पन्न हुए थे तब तो बालक को लोकलाज के कारण फेंक देने का प्रश्न ही नहीं उठता। साथ ही कबीर का जन्म भी काशी में न होकर मगहर ही में हुआ था, जैसे कि उन्होंने स्वयं लिखा है-
पहले दरसन मगहर पाईयो, पुनि कासी बसे आई।
समस्त जीवन काशी में बिताकर मृत्यु के समय कबीर का मगहर जाना भी यह सिद्ध करता है कि वास्तव में उनकी जन्मभूमि मगहर थी; क्योंकि सारा जीवन मनुष्य चाहे कहीं भी रहे, मृत्यु के समय वह अपनी प्यारी जन्मभूमि में पहुंच जाना चाहता है। कबीर के नाम से जो नीचे लिखे पद मिलते हैं कि-
पहले हम भी बाम्भन हते, काम कछुक अस कीना।
एक बार हरि नाम बिसारा, पकरि जुलाहा कीना।।
अथवा
कासी का वासी बाम्भन, नाम मेरा परबीना।
एक बार हरि नाम बिसारा, पकरि जुलाहा कीना।।
इनका अर्थ भी यही है कि वे पिछले जन्म में ब्राह्मण थे। इस पद के द्वारा उनका इस जन्म का ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं होता।
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