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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

संक्रमण-काल (सं० ७०० से १०५०)

परिस्थितियां- अपभ्रंश-भाषा की अन्तिम अवस्था से ही हिन्दी आदि देशभाषाओं का विकास हुआ है, इसलिए हिन्दी-साहित्य का विकास जानने के लिए हिन्दी भाषा के प्राचीन रूप अपभ्रंश से परिचित होना आवश्यक है। आज से तेरह सौ वर्ष पूर्व प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंश भाषा का विकास हुआ, उस समय जब अपभ्रंश में साहित्य का निर्माण प्रारम्भ हुआ, देश की धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक दशा बड़ी ही विचित्र थी। संवत् सात सौ से लेकर दस सौ पचास तक का यह काल ऐसा था जब कि एक ओर शैव, वैष्णव, शाक्त आदि प्राचीन वैदिक सम्प्रदाय फल-फूल रहे थे, दूसरी ओर प्राचीन जैनधर्म भी जनता के हृदयों में घर करता जा रहा था। इसके अतिरिक्त बौद्धों की वज्रयान-शाखा व शैव धर्म के मिश्रण से विकसित सहजिया सम्प्रदाय या वज्रयान शाखा अपने सिद्धान्तों का प्रचार कर रही थी। शैव योगमार्ग के उपासक नाथ या योगियों के प्रति भी लोकरुचि बढ़ रही थी। देश अभी स्वतन्त्र और सर्वसुखसम्पन्न था, इसलिए इस युग के लोगों के पास धर्मचिन्तन के लिए खूब समय रहता था। यही कारण है कि अपभ्रंश का अधिकतर साहित्य जैन, बौद्ध और योगियों के धार्मिक सिद्धान्तों के रूप में ही प्रकट हुआ। इस साहित्य में उक्त तीनों सम्प्रदायों की धार्मिक विचारधारा की ही प्रधानता है। यद्यपि बीच-बीच में शृंगार, वीरता, राजनीति आदि अन्य विषय भी कहीं-कहीं मिल जाते हैं, पर प्रमुखता धार्मिक भावों की ही है। संक्रमण-काल के साहित्य को निम्न तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

१. जैन-साहित्य, २. सिद्ध-साहित्य ३. योगी-साहित्य।

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