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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

१. जैन-साहित्य-जैन धर्म सम्बन्धी साहित्य बड़ा पुराना है, जो अधिकतर अर्धमागधी प्राकृत या संस्कृत में लिखा गया है, अपभ्रंश में भी कुछ आचार्यों ने लिखा था। उनमें से देवसेन, हेमचन्द्र, मेरुतुंग और सोमप्रभ सूरी विशेष प्रसिद्ध हैं। हेमचन्द्र के 'सिद्ध-हेमचन्द्र-शब्दानुशासन' नामक व्याकरण-ग्रन्थ में अपभ्रंश के बहुत से ऐसे उदाहरण दिये गये हैं, जिनसे खड़ी बोली का मूल रूप स्पष्ट प्रकट होता है। जैसे-

भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कन्तु।
लज्जेजं जु बयंसिअहु जह-भग्गा घरु ऐन्तु।।

उक्त-दोहे में-भल्ला हुआ' आदि आकारान्त प्रयोग से खड़ी-बोली हिन्दी का मूल रूप झलक रहा है।

हेमचन्द्र का रचना-काल सं० ११५० से १२३० तक माना जाता है। ये गुजरात-नरेश महाराज सिद्धराज जयसिंह के गुरु तथा अनेक शास्त्रों के पारंगत विद्वान् थे।

२. सिद्ध-साहित्य- विक्रम की सातवीं शताब्दी में भारत के पूर्वी प्रदेशों में शैव धर्म व बौद्ध की वज्रयान शाखा के सिद्धान्तों को मिलाकर 'वज्रयान शाखा' या 'सहजिया सम्प्रदाय' नामक एक नये सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इस सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध या साधु हुए हैं, जिनमें सातवीं शताब्दी के सरहपा या 'सरोजवज्र' नामक सिद्ध सर्वप्रथम हुए। इन सिद्धों ने भी अपभ्रंश भाषा में रचनाएँ लिखी हैं जिनमें तीर्थ, व्रत-पूजा आदि का खंडन तथा गुह्य की उपासना का प्रचार किया गया है। तंत्र, मंत्र, यंत्रों की भी इस साहित्य में भरमार है।

३. नाथ-साहित्य- सिद्धों के समान ही नाथ-साहित्य का बड़ा भाग भी अपभ्रंश भाषा में लिखा गया। मछन्दरनाथ पहले नाथ हैं और गोरखनाथ सबसे प्रसिद्ध नाथ हैं। गोरखनाथ का समय अनिर्णीत है; पर विश्वास किया जाता है कि ये भी आठवीं शताब्दी से पूर्व हो चुके थे। सिद्ध-साहित्य में आगे चल कर बहुत अश्लीलता आ गई, पर नाथ-साहित्य सात्विक ही रहा। आगे चल कर कबीर आदि निर्गुणोपासकों ने निर्गुण निराकार की उपासना आदि के सिद्धान्त व भाषा, विषय, शैली आदि सब कुछ इन सिद्धों व नाथों से ही लिये।

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UbaTaeCJ UbaTaeCJ

"हिंदी साहित्य का दिग्दर्शन" समय की आवश्यकताओं के आलोक में निर्मित पुस्तक है जोकि प्रवाहमयी भाषा का साथ पाकर बोधगम्य बन गयी है। संवत साथ ईस्वी सन का भी उल्लेख होता तो विद्यार्थियों को अधिक सहूलियत होती।