भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
कष्ट और यातनाएं- राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध इस प्रकार के व्यवहार को देखकर उसके देवर महाराणा रत्नसिंह ने उसे बहुत समझाया-बुझाया पर उस पर कुछ प्रभाव न पड़ा। मीरा की अनन्य भक्ति को देखकर महाराणा चुप हो गये, पर उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य ने गद्दी पर बैठते ही मीरा के प्रति अत्यन्त कठोर व्यवहार आरम्भ कर दिया। पहले तो मीरा की ननद ऊदाबाई को भेजकर समझाने-बुझाने का प्रयत्न किया गया किन्तु उसमें असफल होने पर क्रुद्ध विक्रमादित्य ने उसके प्राण लेने की ठान ली। उसे मारने के लिए विष का प्याला भेजा गया, जिसे मीरा भगवान् का चरणामृत समझ कर पी गई। एक पिटारे में विषधर नाग भेजा गया जो मीरा के सम्मुख जाते ही भगवान् शालिग्राम की मूर्ति के रूप में परिवर्तित हो गया। उसके लिए सूलों की सेज भी बिछाई गई जो फूलों की सेज बन गई। मीरा ने इन सब घटनाओं का अनेक पदों में वर्णन किया है।
गोस्वामी जी को पत्र- जब इस प्रकार के अत्याचारों की पराकाष्ठा हो गई तो मीराबाई ने गोस्वामी तुलसीदास जी को पत्र लिखकर उनसे पूछा कि ऐसी स्थिति में मेरा क्या कर्तव्य है। मीरा का वह पद्यात्मक पत्र इस प्रकार है-
स्वस्ति श्रीकुलभूषण दूषणहरण गुसाईँ।
हमको कहा उचित है करिबौ सो लिखिबौ समुझाई।।
इसके उत्तर में गोस्वामी जी ने लिखा कि-
जाके प्रिय न राम वैदेही,
सो नर तजिय कोटि वैरी सम जद्यपि परम सनेही।
गृहत्याग तथा यात्रा- 'तुलसीदास जी का उपरोक्त उत्तर पाकर मीराबाई ने तत्काल गृह-त्याग कर दिया। वे घर छोड्कर सर्वप्रथम अपने चाचा वीरमदेव के यहाँ गईं। वास्तव में उन्होंने मीरा को बड़े आदर के साथ अपने यहाँ बुलाया था। वहाँ उनका भजन-पूजन और कीर्तन बड़े आनन्द के साथ निर्विघ्न रूप से चलता रहा। पर यहां भी संकटों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, और संवत् १५९६ में जोधपुर के राव मालवदेव ने वीरमदेव से मेडता छीन लिया। तब वे तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ी। सर्वप्रथम वे वृन्दावन पहुँचीं, वहाँ चैतन्य सम्प्रदाय के श्री जीव गोस्वामी जी से उनकी भेंट हुई। वहाँ से वे द्वारिका पहुंचीं। द्वारिका में उनका भक्तिभाव कई वर्षों तक बड़े आनन्द और उत्साह के साथ चलता रहा।
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