भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
|
0 |
हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
महाराणा का निमन्त्रण और देह-त्याग- अब तक मीरा एक पहुंची हुई साधिका के रूप में विख्यात हो चुकी थीं। देश के कोने-कोने में उनका नाम बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ लिया जाने लगा था। अब तक मेवाड़ के राणा विक्रमादित्य का देहान्त हो चुका था, और उनके स्थान पर उदयसिंह गद्दी पर बैठ चुके थे। उदयसिंह ने महाराणा वंश की कीर्ति में अपनी कमनीय कविता के द्वारा चार चाँद लगा देने वाली महामहिमामयी अपनी बड़ी माँ (ताई) मीरा को फिर से मेवाड़ में बुलाने के लिए अनेक बार निमन्त्रण भेजे। एक बार मेवाड़ के प्रमुख पंडितों और पुरोहितों के प्रतिनिधि-मंडल ने द्वारिका पहुँच कर मीरा से मेवाड़ लौट चलने के लिए महाराणा की ओर से आग्रह-भरा निवेदन किया, मीराबाई का हृदय इस प्रेमभरे आग्रह के कारण दयार्द्र हो उठा। उन्होंने महाराणा के निमन्त्रण को स्वीकार कर मेवाड़ जाने की अनुमति दे दी। पर जब वह द्वारिका से विदा होते समय भगवान् रणछोड़ जी से आज्ञा लेने के लिए मंदिर में गईं तो वहीं उनकी मूर्ति में समा गई। उस समय के उनके दो पद-'हरि तुम हरौ जन की पीर' और 'साजन सुध ज्यों जानै त्यों लीजै ही' ही प्रसिद्ध है। यह घटना संवत् १६३० की बताई जाती है।
रचनाएँ- मीराबाई के नाम पर निम्नलिखित सात रचनाएं मिलती हैं। १. नरसी जी रो मायरो, २. गीत-गोविन्द की टीका, ३. मीराबाई का मलार, ४. रागगोविन्द, ५. सोरठ के पद, ६. मीरानी, ७. मीरा के पद। किन्तु वास्तव में मीरा की अपने समय में लिखी हुई कोई भी रचना उपलब्ध नहीं होती। वे तन्मय होकर प्रभु-प्रेम के गीत गाया करती थीं। उनके ये गीत ब्रज, राजस्थानी और गुजराती तीनों भाषाओं में मिलते है। वास्तव में मीरा के गीत परम्परा में प्रचलित रहे होंगे और उनकी मृत्यु के पश्चात् ही पुस्तक-रूप में संकलित किये गये होंगे। ऐसी अवस्था में यह बहुत संभव है कि अनेक नये पद भी उनके नाम पर प्रचलित हो गये हों और यह भी हो सकता है कि उनके बहुत से पद लुप्त भी हो गये हों। मीरा की पदावली के रूप में जो संकलित पद मिलते है उनके अतिरिक्त अन्य रचनाओं को मीरा की प्रामाणिक रचनाएँ नहीं माना जाता। गीतगोविन्द की टीका तो निश्चित ही महाराजा कुम्भा की लिखी हुई टीका है। हो सकता है कि इस टीका पर मीराबाई ने भी कुछ टिप्पणी आदि लिखी हो। रागगोविन्द का उल्लेख भी केवल रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने किया है पर पुस्तक कहीं उपलब्ध नहीं हुई। यही स्थिति रागसोरठ के पदों की है। इसका उल्लेख भी मिश्रबन्धुओं ने किया है, पर प्रति का दर्शन किसी को नहीं हुआ। नरसी जी रो मायरो भी भाषा, विषय तथा शैली की दृष्टि से मीरा का लिखा प्रतीत नहीं होता। हाँ, इसमें मीरा के अनेक पद संकलित प्रतीत होते हैं।
|