भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
साहित्यिक प्रवृत्तियाँ- भारतेन्दु जी ने अपना तन-मन-धन अर्थात् सर्वस्व लगाकर हिन्दी के प्रचार के लिए अनेक उपाय और यत्न किये जिनमें से निम्न मुख्य हैं-
(१) हाई-स्कूल की स्थापना-भारतेन्दु जी ने काशी में एक 'हरिश्चन्द्र हाई स्कूल' के नाम से विद्यालय की स्थापना की जिसमें विद्यार्थियों से फीस तो कुछ ली ही नहीं जाती थी, साथ ही छात्रों को पुस्तकें आदि भी विद्यालय की ओर से प्राप्त होती थीं।
(२) पत्र-पत्रिकाएँ- हिन्दी का प्रचार करने के लिए भारतेन्दु जी ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जिनमें से 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' अत्यन्त प्रसिद्ध है। यह 'हरिश्चन्द्र-मैगजीन' आगे चलकर 'हरिश्चन्द्र- चंद्रिका' के रूप में विख्यात हुई। प्रारम्भिक हिन्दी पत्र-पत्रिका-साहित्य में इनका विशेष महत्वपूर्ण स्थान हए।
(३) नाट्य-समितियाँ- हिन्दी के रंगमंच को पुनर्जीवित करने के लिए उन्होंने एक हिन्दी-नाटक-मण्डली की भी स्थापना की। यह नाटक-मण्डली भारतेन्दु जी के लिखे हुए अनेक नाटकों का सुन्दर अभिनय उपस्थित किया करती थी। समय-समय पर स्वयं भारतेन्दु जी अनेक नाटकों में भाग लेते थे और अत्यन्त सुन्दर सजीव अभिनय करते थे तथा अभिनय के द्वारा दर्शकों को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। कहा जाता है कि भारतेन्दु जी के एक नाटक में स्त्री-पात्र का अभिनय करने के लिए पण्डित प्रतापनारायण मिश्र को अपनी दाढ़ी-पूंछ मुँडवा देने पर पिता का कोप-भाजन बनना पड़ा था।
(४) कलाकारों का निर्माण- भारतेन्दु जी ने जहाँ स्वयं बहुत-कुछ लिखा वहाँ अन्य अनेक कलाकारों का भी निर्माण किया। भारतेन्दु- मण्डली के नाम से विख्यात एक लेखक-मण्डली हिन्दी-साहित्य के इतिहास में एक विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी, अंबिकादत्त व्यास, ठाकुर जगमोहनसिंह, लाला श्रीनिवासदास आदि अनेक उत्कृष्ट कलाकार भारतेन्दु-मण्डली के अन्तर्गत हिन्दी की ठोस सेवा करते रहे। इस प्रकार भारतेन्दु जी ने स्वयं तो हिन्दी का महत्वपूर्ण साहित्य निर्मित किया ही, साथ ही अपने अनेक सहयोगियों के द्वारा भी हिन्दी-साहित्य-निर्माण में बहुत बड़ा हाथ बटाया।
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