भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
(५) नाटक-निर्माण- भारतेन्दु जी से पूर्ब हिन्दी में नाटक नाम- वाली वस्तु का सर्वथा अभाव था। कहने को 'हनुमन्नाटक', 'देवमाया- प्रपंच नाटक', 'आनन्दरपुनन्दन नाटक' आदि कई नाटक विद्यमान थे पर वास्तव में यह नाटक नहीं थे। यह नाटक न होकर पद्यात्मक संवाद ही थे। इस प्रकार भारतेन्दु जी ने 'सत्य हरिश्चन्द्र, 'नीलदेवी', 'अन्धेरनगरी' आदि अनेक नाटकों का निर्माण करके हिन्दी में दृश्य काव्य की परम्परा को प्रचलित किया।
(६) समाज-सुधार- भारतेन्दु जी हिन्दी-सुधार की ओर प्रवृत्त हुए थे। वे अपने पत्र-पत्रिकाओं में तथा पुस्तकों में सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों पर बड़ा तीखा और गहरा व्यंग्य करते थे।
(७) राष्ट्रीयता- बाबू हरिश्चन्द्र साहित्यकार होने के साथ-साथ सच्चे देशभक्त भी थे। देश की पराधीनता तथा दुर्दशा को देखकर उनका हृदय रो उठता था। उनके हृदय का वह क्रन्दन-
आवहु रोबहु मिलिकै सब भारत भाई,
हा हा भारत दुर्दशा देखि न जाई।
आदि पदों में प्रकट हुआ है। भारतदुर्दशा में तात्कालिक राष्ट्रीयता का भी लगे हाथों सच्चा चित्र अंकित हो गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतेन्दु जी की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ अत्यधिक व्यापक थीं।
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