भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
वीरगाथा काल के प्रमुख लेखक
दलपति-विजय - इस लेखक के बनाये हुए 'खुमान-रासो' नामक डिंगल भाषा के काव्य में सं० ८७०-९० तक विद्यमान चित्तौड़ के महाराणा खुमाण द्वितीय की वीरता का वर्णन है। यह रचना समय के संभवतः बदल गयी है, इसलिए वर्तमान रूप को संशोधित माना जाता है।
नरपति नाल्ह - इनके बनाये हुए 'बीसलदेव-रासो' के चार खंडों में अजमेर के चौहान महाराज विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव का रावल भोजदेव की पुत्री राजमती से विवाह तथा उड़ीसा-प्रस्थान वर्णित है।
चन्दवरदाई - इन्होंने 'पृथ्वीराज-रासो' नामक महाकाव्य की रचना की है। इसमें आबू के अग्निकुंड से चौहान आदि चार क्षत्रिय-कुलों की उत्पत्ति से लेकर महाराज पृथ्वीराज की मृत्यु तक का वर्णन है। शहाबुद्दीन गौरी के साथ अजमेर के महाराज पृथ्वीराज के जैसे लोमहर्षण युद्ध हुए; पृथ्वीराज ने उसे कई बार परास्त कर पकड़ कर छोड़ दिया और अन्त में स्वयं गौरी के हाथों पकड़े जाकर मारे गये। यह सब कथा इस वीर-काव्य में विस्तारपूर्वक दी गई है। इसके लेखक चन्दवरदाई ने अपने बारे में लिखा है कि वह महाराज पृथ्वीराज के राजकवि, सामन्त, सखा, मन्त्री, मित्र आदि सब कुछ थे। इनका जन्म लाहौर में तथा मृत्यु ग़ज़नी में हुई। ये पृथ्वीराज-रासो का अन्तिम भाग अपने पुत्र जल्हण को सौंप कर ग़ज़नी चले गये थे। इसलिए इस ग्रंथ का अन्तिम भाग जल्हण ने पूरा किया; इसकी भाषा पिंगल है। यह हिन्दी का सर्वप्रथम महाकाव्य है। कई वर्षों तक यह ग्रन्थ प्रामाणिक माना जाता रहा, पर ओझाजी आदि विद्वानों ने इसे अप्रामाणिक माना है, वर्तमान में प्राप्य रूप की मौलिकता में संदेह है।
जगनिक - इस कवि के बनाये हुए आल्हाखंड नामक गीत-काव्य में महोबा के वीर आल्हा और ऊदल की वीरता का वर्णन है। इस वीरकाव्य की भाषा पूर्वी हिन्दी है। यह अपने मूल रूप में कहीं नहीं मिला। मौखिक-परम्परा में रहने के कारण इसका रूप भी बहुत परिवर्तित हो गया है।
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