भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
भक्ति-काल (सं. १३७५-१७००)
परिस्थितियाँ- चौदहवीं शताब्दी के अन्त होने तक हिन्दी में वीरगाथा की परम्परा लुप्त-सी हो गई और उसका स्थान भक्ति-सम्बन्धी साहित्य ने ले लिया। हिन्दी ने जहाँ पहले चन्दवरदाई और जगनिक जैसे वीर कवि दिये वहाँ अब कबीर, जायसी, सूर, तुलसी जैसे विरक्त भक्त-गणों की रचनाओं से हिन्दी-साहित्य समृद्ध होने लगा।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों हुआ? वीरगाथा की परम्परा के समाप्त होने के क्या कारण थे? भक्ति ने वीरगाथा-काल का स्थान क्यों ले लिया? इस शंका के समाधान के लिए भी हमें तात्कालिक परिस्थितियों का ही सिंहावलोकन करना होगा। उस समय की परिस्थितियों पर विचार करते हुए हम देखते हैं कि चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम काल में भारत में मुसलमानों का अखंड साम्राज्य स्थापित हो गया था। हमने तीन सौ वर्षों तक मुसलमानों से डटकर लोहा लिया था पर हमें अपने उन प्रयत्नों में कोई सफलता न मिली। देखते-ही-देखते हम मुसलमानों के दास हो गये, वेद जलाये जाने लगे, मन्दिर गिराये जाने लगे, लोगों को बलात् मुसल- मान बनाया जाने लगा। पर किसी राजा राव में हिम्मत न थी कि वह इन आततायियों के विरुद्ध तलवार उठाता। सब वीरों और उनकी वीर भावनाओं को काठ मार गया था। इस प्रकार जब देश में वीर नहीं रहे, वीरता के कार्य नहीं रहे, देश की स्वाधीनता का संघर्ष समाप्त हो गया और हम यवनों के क्रीतदास बन गये। ऐसी परिस्थिति में भला कौन कवि अपने आश्रयदाता की वीरता का झूठा बखान कर वीर- काव्यों का निर्माण करता! यही कारण है कि संवत् १४२५ में उत्पन्न होने वाले विद्यापति की 'कीर्तिलता' और 'कीर्ति-पताका' नामक वीरकाव्यों के साथ वीरगाथा का प्रथम उत्थान समाप्त हो जाता है।
अब देखना यह है कि भक्ति की परम्परा क्यों चल निकली? इसके लिए हम देखते हैं कि भक्ति-सम्बन्धी साहित्य के प्रादुर्भाव में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक आदि अनेक ऐसे कारण थे, जिनके परिणाम-स्वरूप उस समय भक्ति-सम्बन्धी साहित्य का बोलबाला रहा।
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