भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
मनुष्य पर जब विपत्ति आती है, तो वह बाहुबल से उसका सामना करता है; पर जब उसका बाहुबल व्यर्थ हो जाता है, तब वह विवश हो भगवान् की शरण में जाता है। जब हम बाहुबल से यवनों के आक्रमणरूपी संकटों से छुटकारा न पा सके, तो अन्त में हमने प्रभु का द्वार खटखटाया और हम उस की भक्ति में लीन हो गये। दूसरा सामाजिक कारण यह है कि अब तक मुसलमान हमारे यहाँ पर्याप्त संख्या में बस चुके थे; अब उनसे रात-दिन संघर्ष करके भी निर्वाह नहीं हो सकता था। हिन्दू और मुसलमानों के हृदयों को मिलाने के लिए भगवान् की उपासना के सिवा और कोई मार्ग न था। प्रभु के दरबार में हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं हो सकता था। इसीलिए कबीर, जायसी, नानक, दादू आदि सन्तों ने निर्गुण निराकार प्रभु की भक्ति के गीत गाकर हिन्दू, मुसलमानों के हृदयों को मिलाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस प्रकार निर्गुणोपासना की धारा बह निकली। मुसलमानों के यहाँ प्रभु के सगुण रूप को स्वीकार नहीं किया जाता इसलिए ईश्वर के सगुण रूप को अपनाने से हिन्दू-मुस्लिम-एकता संभव नहीं थी। यही कारण है कि हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य-भावना के पवित्र उद्देश्य से निराकारोपासना का प्रचार किया गया। इस भक्ति-सम्बन्धी धारा को प्रवाहित करने में जहाँ अनेक हिन्दू कवियों ने योग दिया, वहाँ मुसलमान कलाकार भी किसी से पीछे नहीं रहे। यह उन भक्त कवियों की साधना का ही परिणाम था कि सब भेद-भाव भुलाकर हिन्दू और मुसल- मान प्रेम और भाईचारे के साथ रहने लगे।
इस सामाजिक व राजनैतिक कारण के अतिरिक्त भक्ति-सम्बन्धी साहित्य के प्रादुर्भाव में सबसे बड़ा धार्मिक कारण यह था कि लक्ष्मीनारायण, राम और कृष्णादि प्रभु की सगुण भक्ति का प्रचार दक्षिण भारत में बड़े उत्साह के साथ हो रहा था। समय के साथ उत्तर भारत के विद्वानों का ध्यान भी इस ओर गया। इस बीच मुगल सल्तनत का प्रारम्भ हो चुका था, जिसका दूरगामी प्रभाव होने लगा था। तत्कालीन संतों में से रामानन्द, जयदेव, सूर, तुलसी, मीरा आदि सगुणोपासक सन्त कवियों ने राम और कृष्ण की भक्ति के गीत गाकर देश में अपनी संस्कृति व धर्म की रक्षा के लिए तथा जीवन को सरस बनाये रखने के लिए शृंगार, प्रेम तथा माधुर्य की धारा बहा दी। रामभक्त कवियों ने देशवासियों में स्वधर्म-रक्षा के लिए उत्साह के भाव भरे, तो कृष्णभक्तों ने अपनी सरस रचनाओं के द्वारा नीरस लोक-जीवन को सरस बना दिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक के समय में विविध कारणों से भक्ति-सम्बन्धी साहित्य ही की आवश्यकता थी और उसी का निर्माण हुआ। हिन्दू-मुसलमानों ने भाईचारे की स्थापना कर देश के जीवन में उत्साह व सरसता की लहर उत्पन्न कर इस साहित्य के द्वारा राष्ट्रनिर्माण में महत्वपूर्ण योग दिया।
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