भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
|
0 |
हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
जयद्रथवध- यह महाभारत के आधार पर हरिगीतिका छन्द में लिखा हुआ खण्ड-काव्य है। इसमें वीर और करुणा रसों की अवतारणा बड़े सुन्दर रूप में हुई है। अभिमन्यु के साथ उत्तरा का चरित्र भी सफलतापूर्वक अकृति किया गया है। 'जयद्रथवध' से गुप्त जी ने अपने पूर्वजों के चरित्र-गान की जिस पावन धारा को प्रवाहित किया था वह आज तक कोटि-कोटि प्राणों को पावन और परितृप्त करती हुई सतत गति से बहती चली आ रही है।
शकुन्तला- 'जयद्रथवध' के पश्चात् एक छोटा-सा खण्ड-काव्य 'शकुन्तला' आता है। इसका कथानक-कालिदास के 'अभिज्ञान-शाकुन्तल' नाटक पर आधारित है। शकुन्तला की तन्मयता और दुर्वासा के रौद्र- रूप की अवतारणा सुन्दर हुई है। इसी बीच गुप्त जी 'तिलोत्तमा' और 'चंद्रहास' नामक छोटे-छोटे पौराणिक नाटक भी हिंदी-साहित्य को देते गये।
त्रिपथगा-इसमें 'बक-संहार', 'वन-वैभव' और 'सैरंध्री' नामक तीन छोटे-छोटे काव्य सम्मिलित हैं। इस समय तक राष्ट्र में हिंदू-मुस्लिम-एकता की भावना उद्बुद्ध हो चुकी थी।
शक्ति- इसमें भगवती की दुष्ट-दलन-कारिणी दिव्य शक्ति का वर्णन किया गया है।
नहुष - इसमें इन्द्र-पदवी पर पहुंचे हुए नहुष का ऋषियों के शाप के कारण पतन और फिर अपने कर्मों के द्वारा उत्थान के दृढ़ सङ्कल्प की कथा है।
द्वापर- इसमें श्रीकृष्ण-कथा कही गई है। इसकी विस्तृत आलोचना आगे की जायगी।
कुणाल- यह गुप्त जी की नवीन रचनाओं में से एक है। इसकी रचना भी गुप्त जी ने राजबंदी की अवस्था में की थी। उनके इस जीवन का प्रभाव इसमें स्पष्ट लक्षित होता है। इसमें अशोक के पुत्र कुणाल की कथा कही गई है। इसके गीतों मं बुद्ध के मित्रता तथा करुणा संबन्धी उपदेशों के साथ विश्वबन्धुत्व की भावना भी स्पष्ट प्रकट हो रही है। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं और मानवता के सिद्धान्तों की भी इसमें यत्र- तत्र झलक आ गई है।
|