भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
आपने हिन्दी, संस्कृत, बँगला व अँग्रेजी साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया है। दर्शन व उपनिषदों की ओर भी इनकी प्रवृत्ति रही है। पन्तजी का प्रत्येक कार्य इनकी नई सूझ-बूझ का परिचय देता है। इन्होंने अपने वास्तविक नाम को भी पुराना समझकर छोड़ दिया। इनका वास्तविक नाम 'गुसाईंदत्त' पंत था, जैसे कि इनके शेष तीन भाइयों के नाम भी हरदत्त, रघुवरदत्त और देवीदत्त हैं। हरदत्त पंत के पास उनके मित्र सुमित्रानन्दन सहाय के पत्र आया करते थे। बस गुसाईंदत्त को यह नाम पसन्द आ गया। तब से इन्होंने अपने-आपको 'सुमित्रानन्दन' कहना शुरू कर दिया। यह है इनके साहित्यिक नाम का रहस्य। पंतजी की नवीनता की यह रुचि आपकी नवीन साहित्यिक संस्था 'लोकायतन' के पदाधिकारियों के नामकरण में भी स्पष्ट दिखाई देती है। आपने सभापति का नाम लोकपति' और उपसभापति का नाम 'लोकव्रती' रखा। मंत्री को 'लोकसखा' और कोषाध्यक्ष को 'निधिपति' का नया नाम दिया। बात तो यह है कि पंतजी प्रकृति से ही कलाप्रिय प्राणी हैं। सुरुचि-संस्कार और कलात्मकता की आप मूर्ति प्रतीत होते हैं। प्रकृति की परम रमणीय गोद में पलने और पनपने के कारण पंतजी की नस-नस में सौंदर्योपासना समाई हुई है। पन्तजी वास्तव में एक कमनीय कल्पनाशील कुशल कवि एवं कलाकार हैं। प्रसादजी और निरालाजी की भाँति पंतजी ने भी गद्य-पद्य, नाटक, उपन्यास, कहानी इत्यादि सभी कुछ लिखा है। पर उनकी लोकप्रियता कविता के कारण ही अधिक है।
पंतजी की' सबसे बड़ी विशेषता उनकी कोमलकान्त पदावली है। पंतजी ने खड़ीबोली को इतनी मंजुलता, पेशलता और परिष्कृति की कि उसमें अनायास ही ब्रजभाषा के माधुर्य का संचार हो गया और वह नवीन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने में समर्थ हो गई। पंतजी की परिष्कृत प्रतिभा द्वारा प्रदत्त कोमलकान्त पदावली के अभाव में खड़ीबोली की कविता का सौंदर्य कदापि नहीं निखर सकता था। निर्बल अनुभूति, मृदुल व्यक्तित्व और सुकोमल-प्रतिभा-सम्पन्न उनके काव्य में निरालाजी जैसी ओजस्विता और सशक्तता तो नहीं है, पर अलौकिक कल्पना तथा अनुपम कलात्मकता के कारण वे ही छायावाद के प्रमुख प्रतिनिधि कलाकार कहे जाते हैं। उनके शब्दों में लय का प्रभाव तथा संगीत और माधुर्य अनुपम है। बात तो यह है कि जिस युग में पंत, निराला आदि छायावादी कवियों ने साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण किया, उस समय हिन्दी में नूतन काव्य-प्रवृत्तियों को वहन करने के योग्य उपयुक्त पदावली और छन्दों का खड़ीबोली में अभाव था। पंतजी ने इन दोनों ही क्षेत्रों में अपनी अनुपम प्रतिभा का परिचय दिया है। पंतजी प्रमुख रूप में प्राकृतिक सौंदर्य के कुशल कवि है। प्रकृति को अपने वास्तविक रूप में चित्रित करने की सर्वाधिक क्षमता हम पंतजी में देखते हैं। पंतजी छायावाद के क्षेत्र में नवीन चेतना का संचार करने वाले अनुपम कलाकार है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित है।
(१) काव्य- वीणा, ग्रन्थि, गुञ्जन, पल्लव, पल्लविनी, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, मधुज्वाल, युगपथ और उत्तरा।
(२) नाटक- ज्योत्स्ना
(३) उपन्यास- हार
(४) कहानी-संग्रह- पाँच कहानियाँ
(५) अनुवाद- उमरखैयाम की रुबाइयों का हिन्दी अनुवाद
पंतजी की इन रचनाओं को विकास-क्रम की दृष्टि से निम्न तीन युगों में विभक्त कर सकते है- (१) छायावादी सौंदर्य'-युग (२) प्रगति-युग (३) आध्यात्मिक-युग। 'वीणा', 'ग्रंथि', 'पल्लव', 'पल्लविनी', 'गुञ्जन', 'ज्योत्स्ना' और 'युगान्त' छायावादी सौंदर्य-युग की रचनाएँ है।' 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' को प्रगतियुग की कृतियाँ कह सकते है।' 'स्वर्णधूलि'', 'स्वर्णकिरण', 'युगपथ' और 'उत्तरा' अध्यात्मवादी युग की रचनाएँ हैं। अब इन पर क्रमश: विचार किया जाता है।
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