भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
छायावादी काव्य
सन् १९१५ से १९३५ तक की रचनाएँ छायावाद युग की हैं। इन रचनाओं में सर्वप्रथम 'वीणा' का स्थान है। अत: सबसे पहले 'वीणा' ही को ले लें।
वीणा- पंतजी की प्रारम्भिक रचनाएँ इस संकलन में संग्रहीत की गई है,। बादल, इन्द्रधनुष, झरने, सर, सरिता, उषा और संध्या ओसकण और नक्षत्र आदि प्रकृति के विभिन्न पदार्थों पर लिखी गई पंतजी की प्रयोगकालीन कविताओं को इसमें प्रकाशित किया गया है। प्रकृति के प्रति अनुराग के अतिरिक्त बालसुलभ आदर्श भावनाएँ भी इनकी कई कविताओं में व्यक्त हुई हैं। स्वामी विवेकानंद जी से प्रभावित होकर इष्टदेव की मातृरूप में कल्पना कर कवि ने वीणावादिनी के प्रति कुछ प्रार्थना-गीत गाये हैं।
ग्रन्थि- यह एक विरह-काव्य है, जो एक भावुक हृदय की प्रणय-कथा पर आधारित है। कहा जाता है कि 'ग्रन्थि' की प्रणय-कथा का. सम्बन्ध कवि के जीवन से है। नौका के नदी में डूब जाने के कारण 'ग्रन्थि' का नायक जल में डूब कर अचेत हो जाता है। संज्ञा आने पर वह अपने-आपको एक सुन्दरी की गोद में सिर रखे पाता है। यहाँ नायक का उसकी प्रेयसी से प्रथम प्रणय का चित्र बड़ा ही दिव्य है।
पल्लव- यह पंतजी का तीसरा काव्य-संग्रह है। इसकी अधिकांश रचनाएं सन् १९१८ से १९२६ के बीच में लिखी गई थीं। इसी समय पंतजी ने सुरम्य पर्वत-प्रान्त का परित्याग कर प्रयाग के पावन प्रदेश में पदार्पण किया। यद्यपि 'पल्लव' में कवि के आकर्षण का मुख्य केन्द्र प्रकृति है, तथापि अब उसमें वैसी अनुभूति नहीं। इस सम्बन्ध में कवि स्वयं कहता है कि पल्लव-काल में मुझसे प्रकृति की गोद छिन जाती है। 'पल्लव' की रूपरेखाओं में प्राकृतिक सौंदर्य तथा उसकी रंगीनी तो वर्तमान रहती है, किन्तु केवल प्रभावों के रूप में-उससे वह 'सान्निध्य' का संदेश लुप्त हो जाता है। पल्लव-काल की रचनाओं में विहग, मधुप, निर्झर आदि तो वर्तमान हैं, उनके प्रति हृदय की ममता ज्यों-की-त्यों बनी हुई है, लेकिन अब जैसे उनका साहचर्य अथवा साथ छूट जाने के कारण वे स्मृतिचित्र तथा भावना के प्रतीक-भर रह गये हैं।
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