भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
प्रसिद्ध उपन्यासों का परिचय-अब यहाँ पर उनके चार परम प्रसिद्ध उपन्यासों-'सेवासदन', 'निर्मला,' प्रेमाश्रम' व 'गोदान' का संक्षिप्त समालोचनात्मक परिचय दिया जाता है।
सेवासदन- कथावस्तु- एक अत्यन्त सदाचारी, जन्म-भर कभी रिश्वत न लेने- वाले पुलिस-दारोगा कृष्णचन्द्र को भी अपनी लड़की सुमन का विवाह करने के लिए एक प्रसिद्ध धनी महन्त रामदास से रिश्वत लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस पर वे ५ साल के लिए जेल भेज दिये गये। पीछे सुमन का विवाह गजाधर नामक एक साधारण १५ रुपये मासिक वाले नौकर से हो गया।
सुमन के घर के सामने एक भोली नामक वेश्या रहती थी। उसका सुमन पर भला-बुरा प्रभाव पड़ने लगा। उधर गजाधर को इस पर संदेह होने लगा और उसने सुमन को घर से बाहर निकाल दिया। वह पहले पद्मसिंह के यहाँ रही, पर पद्मसिंह ने लोकनिन्दा के कारण उसे निकाल दिया। अब उसे विवश होकर भोली वेश्या के यहाँ आश्रय लेना पड़ा। वहाँ उसने गाने-बजाने का काम आरम्भ किया। इधर पद्मसिंह का 'सदन' नामक भतीजा वेश्याओं के यहाँ आने-जाने लगा, और एक दिन सुमन के पास भी पहुँच गया। वह सुमन से प्यार करने लगा। एक बार उसने साड़ी और चाची का कंगन चुरा कर भेंट किया। इस पर सुमन कंगन वापिस चाची को दे आई। चाची के हाथों में कंगन देखकर सदन बहुत लज्जित हुआ। और सुमन के यहाँ जाने से रुक गया। इधर पद्मसिंह के विट्ठलदास नामक एक समाज-सुधारक मित्र ने सुमन को वेश्यावृत्ति से हटाकर महिला-आश्रम में रखवा दिया।
उधर जेल से छूटने पर निर्धनता के कारण कृष्णचन्द्र की अवस्था पागलों की सी हो गई। उनकी दूसरी पुत्री शान्ता का विवाह सदन से निश्चित हो गया। पर सुमन की वेश्यावृत्ति के कारण सदन का पिता मदनसिंह बरात को लौटा कर ले आया। इस घटना से कृष्णचन्द्र को इतना धक्का लगा कि वह तुरन्त गंगा में डूब कर मर गया। अनाथ शान्ता सुमन के आश्रम में आ पहुँची, किन्तु एक वेश्या सुमन को अपने आश्रम में रखने के कारण लोग विट्ठलदास के विरोधी हो गये। परिणाम-स्वरूप शान्ता के साथ सुमन ने आश्रम छोड़ दिया। सदन ने गंगा पर नाविक का कार्य शुरू कर दिया था। वह मल्लाहों का सरदार बन चुका था। उसने नाव पर जाती हुई सुमन को पहचान लिया। सुमन ने उसे खूब फटकारा। तिस पर सदन ने शान्ता के साथ विवाह कर लिया। मदनसिंह ने अपने पुत्र सदन को त्याग दिया। सुमन के वेश्या होने की प्रसिद्धि यहाँ भी आ पहुँची। इसलिए उसके सब मल्लाह विरोधी हो गये, फलत: सुमन को यहाँ से भी निकलना पड़ा। मार्ग में स्वामी गजानन के रूप में गजाधर से उसकी भेंट हो गई। उनकी (सेवा) प्रेरणा से उसने सेवासदन का कार्य-भार स्वीकार कर लिया।
आलोचना-सेवासदन प्रेम-प्रधान न होकर एक सामाजिक उपन्यास है। नारी की दुर्दशा और उसके कारणों पर प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि वेश्याएँ भी कहीं नरक से निकल कर नहीं आतीं। वे भी भले घर की बहू-बेटियाँ हैं, जिन्हें परिस्थितियों से बाध्य होकर यह वृत्ति स्वीकार करनी पड़ती है। साथ ही इस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत किया गया है कि यदि कोई अपने आचरण को स्थिर बनाये रखे, तो अन्त में उसका उद्धार हो सकता है। इधर साथ ही पुलिस कर्मचारियों, महन्तों, नकली समाज-सुधारकों आदि की भी अच्छी पोल खोली गई है।
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