भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
निर्मला- कथावस्तु- उदयभानुलाल की पुत्री निर्मला का विवाह भालचन्द्र के पुत्र से निश्चित हो चुका था। पर इसी बीच उदयभानुलाल के गुण्डों के द्वारा मारे जाने के कारण विशेष दहेज की आशा नष्ट हो जाने से भालचन्द्र ने सम्बन्ध छोड़ दिया, इसीलिए निर्मला का विवाह बाल- बच्चों वाले बूढ़े मुन्शी तोताराम वकील से कर दिया गया। मुन्शी जी की बहन रुक्मणी और निर्मला में सदा खटपट रहती थी। मुन्शी जी चाहते थे कि निर्मला उनसे वैसे ही प्यार करे जैसे कि एक युवती अपने नौजवान पति से करती है। पर यह भला कैसे हो सकता था? इसके लिए उन्होंने कई तरह की उछल-कूद की, कई उपाय रचे, पर वे निर्मला के हृदय को जीत न सके। निर्मला को उनकी सेवा करनी थी, और करती भी थी, पर हृदय से प्रेम करना उसके वश का काम न था। इधर मुन्शी जी के बड़े पुत्र मंसाराम के साथ निर्मला की सहानुभूति बढ़ने लगी। अत: मुन्शी जी ने मंसाराम को होस्टल में भर्ती करवा दिया।
निर्मला ने यह कहकर कि में उनसे पढ़ती हूँ इसलिए आप उन्हें होस्टल में न भेजें, रोकना चाहा पर वे न माने। बोर्डिग में मंसाराम बीमार हो गया, अवस्था चिंताजनक होने पर भी मुन्शी जी उसे घर न लाये और सीधा हस्पताल' भेज दिया। डाक्टरों ने किसी दूसरे आदमी का रक्त देने को कहा। यह समाचार सुनकर निर्मला हस्पताल पहुंची और अपना खून देने को प्रस्तुत हो गई, पर मुन्शी जी ने न देने दिया। फलत: मंसाराम मर गया। मंसाराम के हस्पताल के डाक्टर सिन्हा से मुन्शी जी और उनके परिवार की स्त्रियों का आपस में मेल-जोल बढ़ गया। डाक्टर सिन्हा की स्त्री ने उन्हें बतलाया कि उन्हीं से पहले निर्मला की सगाई हुई थी, इस पर डाक्टर सिन्हा ने पश्चात्ताप प्रकट करते हुए अपने छोटे भाई से निर्मला की छोटी बहन का विवाह करवा दिया। मुन्शी जी के छोटे पुत्र जीयाराम को विश्वास हो गया कि मंसाराम मुन्शी जी के दुर्व्यवहार के कारण मरा है। अत: बाप-बेटों में खटपट रहने लगी, वह आवारा हो गया और निर्मला के गहने चुराकर ले आया। पुलिस ने बदमाशों से पता लगवाया कि जीयाराम चोर है। मुन्शी जी ने घूँस देकर मामले को दबा दिया। जीयाराम ने विष खाकर आत्महत्या कर ली। सबसे छोटा पुत्र सियाराम भी साधु हो गया। मुन्शी जी अपने बेटे को ढूँढने निकले और रात को बारह बजे निराश लौटे। मुन्शी जी ने सारी आपत्तियों का कारण निर्मला को ही बताते हुए उसे खूब गालियाँ दीं और प्रातःकाल ही फिर लड़के को ढूँढ़ने निकल पड़े। एक बार निर्मला मिसेज सिन्हा के यहां आई। वहाँ वह तो नहीं मिली पर डाक्टर सिन्हा ने उसे अकेले पाकर प्रेम की बातों से फुसलाना चाहा, पर वह चुप- चाप चली गई। मार्ग में मिसेज सिन्हा के मिलने पर निर्मला ने कहा कि वह अभागिन न होती तो यह दिन क्यों देखती। इस पर मिसेज सिन्हा डाक्टर सिन्हा पर बरस पड़ी। परिणाम स्वरूप डाक्टर सिन्हा ने विष खाकर आत्महत्या कर ली। निर्मला भी कुछ दिन बीमार रहकर चल बसी। लोग सोच ही रहे थे कि इसका दाहकर्म कौन करे कि इतने में मुन्शी जी आ पहुँचे।
आलोचना- यह एक सामाजिक उपन्यास है। इसमें दहेज-प्रथा की बुराइयाँ और वृद्ध-विवाह के दुष्परिणामों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया हु। दहेज न दे सकने के कारण ही निर्मला की सगाई डाक्टर सिन्हा से छूट गई और उसे एक बूढ़े के पल्ले पड़ना पड़ा। उधर वृद्ध-विवाह के कारण मुन्शी जी का घर भी चौपट हो गया। निर्मला समाज की शिकार होकर आदि से लेकर अंत तक विपत्तियों के जाल में फंसी रही।
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