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धर्म एवं दर्शन >> काम

काम

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9811

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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन


और दूसरी ओर-

काटि कोल फल खात।


जंगली व्यक्ति न केवल फलों को तोड़ता है, अपितु यदि उसे अधिक फल चाहिये तो वह वृक्ष की डाल भी तोड़ देता है या फिर पेड़ को ही काट डालता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि दोनों (भौंरा और जंगली व्यक्ति) वृक्ष के सहारे ही रहने वाले जीव हैं –

तुलसी तरुजीवी जुगल,


पर दोनों की वृत्तियों में अंतर है-

सुमति कुमति की बात।। (दोहावली - 343)


इसका अभिप्राय है कि एक ही वस्तु से रस और आनंद की प्राप्ति, उस वस्तु को नष्ट करके या बिना हानि पहुँचाये भी की जा सकती है। यह उस व्यक्ति की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। इस संदर्भ में दृष्टांत के रूप में पुष्पवाटिका का मधुर प्रसंग हमारे सामने आता है। भगवान् राम गुरुदेव की आज्ञा से पूजा के लिये पुष्प लेने पुष्पवाटिका में आते हैं। उसी समय श्रीसीताजी भी सखियों के साथ वहाँ पधारती हैं। श्रीसीताजी के आभूषणों की ध्वनि भगवान् राम को सुनायी पड़ती है और इसे सुनकर भगवान् राम को कामदेव का स्मरण हो आता है। मानो गोस्वामीजी काम को इतना ऊँचा रूप भी प्रदान करते हैं। यहाँ भगवान् राम के साथ श्रीलक्ष्मणजी भी हैं। भगवान् राम ने लक्ष्मणजी की ओर देखा, पर उन पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं दिखा। भगवान् राम के मन में उस समय एक कविता का जन्म हुआ। जितनी ललित कलाएँ हैं उनके मूल में 'काम' ही तो होता है। यदि 'काम' न हो तो संगीत, नृत्य, श्रृंगार आदि का आनंद नहीं आ सकता। काम न हो तो सुंदर-सुंदर चित्रों ओर कलाकृतियों का निर्माण नहीं हो सकता, क्योंकि 'काम' एक प्रेरक वृत्ति है और निर्माण का मूल कारण है। ब्रह्म ने अयोध्या में कविता का निर्माण नहीं किया पर पुष्पवाटिका में उनके अंतःकरण में काव्यरस की स्फुरणा होती है। वे लक्ष्मणजी से पूछते हंब - ''लक्ष्मण! तुमने कुछ सुना?'' पर लक्ष्मणजी की यही विशेषता है कि वे जानते हैं कि कब बोलना चाहिये और कब चुप रहना चाहिए। प्रभु ने देखा कि वे मौन हैं तो स्वयं कहने लगे - ''लक्ष्मण! मुझे ऐसा लगता है कि कामदेव के मन में विश्वविजय की इच्छा उत्पन्न हुई है और वह वाद्य बजाता हुआ मुझ पर आक्रमण करने के लिये आ रहा है। क्योंकि काम ने सोचा होगा कि संसार के लोगों को अलग-अलग हराने से तो अच्छा है कि- 'विश्वरूप राम को हरा दूँ और सीधे ही विश्वविजेता बन जाऊँ!''

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