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काम

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9811

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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन


'काम' को किस रूप में देखें? उसे निंदनीय मानें या वंदनीय मानें? यह विचार-संघर्ष व्यक्ति के मन में बार-बार उठता ही रहता है इस प्रश्न से समाज और संसार का स्वरूप ही जुड़ा हुआ है। यदि यह कहा जाय कि जीवन में या जीवन की हर क्रिया में कठोर नियम होना चाहिये, मर्यादा होनी चाहिये, तब तो संसार मानो एक 'जेलखाना' बन जायगा और हर व्यक्ति बंदी की तरह जीवन व्यतीत करने को विवश हो जायगा। पर दूसरी ओर यदि मन को यह खुली छूट दी जाय कि वह 'जो चाहे वही करे' तब तो यह समाज एक पागलखाना ही बन जायगा। समाज की ये दोनों ही स्थितियाँ अकल्याणकारी हैं। इसलिए समाज को न तो 'जेलखाना' बनाना है और न ही 'पागलखाना' क्योंकि व्यक्ति को वस्तुत: 'घर' की आवश्यकता है। स्वतंत्रता के नाम पर मनमानी करने की छूट देने से व्यक्ति अंत में 'पागलखाना' तक ही तो पहुँच जायगा। व्यक्ति यदि यह सोच ले कि मैं किसी 'सीमा' या 'दीवार' को स्वीकार नहीं करूँगा, क्योंकि दीवार या सीमा के भीतर रहना बंधन है, तो ऐसा व्यक्ति रात्रि में खुले स्थान में सोते हुए क्या सुरक्षित रह पायगा? क्या उसे चोर और डाकुओं का डर नहीं बना रहेगा? इसलिए 'घर' कथित स्वतंत्रता के नाम पर अंततोगत्वा प्राप्य 'पागलखाने' और कठोर नियम-पालन से बननेवाले 'बंदीखाने' के बीच की एक सामज्जस्यपूर्ण कड़ी है और घर में रहने से ही व्यक्ति का कल्याण सुनिश्चित है।

'घर' और 'जेलखाने' में यद्यपि कुछ साम्यताएँ दिखायी देती हैं पर दोनों में जो अंतर है, वह बड़े महत्त्व का है। जेलखाने में दीवारें होती हैं, तो घर में भी होती हैं, खिड़की, दरवाजे एवं किवाड़ आदि भी दोनों ही स्थानों में होते हैं, पर आप विचार करके देखें कि जेलखाने में आप पूरी तरह परतंत्र हैं और घर में परतंत्र और स्वतंत्र दोनों ही हैं। दीवाल में घिर गये तो परतंत्र हो गये, ऐसा लगता है, पर अंतर है। घर में आप जब चाहें किवाड़ खोल सकते हैं और जब चाहें बंद कर सकते हैं। घर में बाहर-भीतर दोनों ओर ही ताला बंद करने का प्रबंध होता है और यह आपके हाथ में होता है। पर जेलखाने में ताला बंद करने का एक ही स्थान होता है- बाहर की ओर और उसका नियंत्रण भी दूसरे के हाथ में होता है। इसी तरह 'काम' के प्रति भी स्वेच्छाचारिता और कठोर नियंत्रण की वृत्तियों के बीच सामंजस्य की आवश्यकता है। भगवान् राम, श्रीसीताजी और भगवान् शंकर के द्वारा काम की स्वीकृति, उसको इसी रूप में ही ग्रहण करने का संकेत-सूत्र है।

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