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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
काम, क्रोध और लोभ की शास्त्रों में निन्दा की गयी है। संत महात्मा और विद्वान गण अपने उपदेशों और प्रवचनों में इन पर नियंत्रित करने की बात बार-बार दुहराते हैं, पर इतना होते हुए भी हम देखते हैं कि बिरले व्यक्ति ही ऐसे होते होंगे जो इन बुराइयों पर विजय प्राप्त कर पाते हैं।
कर्म और उसके फल के सम्बन्ध में एक सिद्धान्त हमारे सामने आता है कि व्यक्ति को इस जन्म में किये गये कर्मों का फल तो मिलता ही है पर पूर्व-पूर्व जन्मों के कर्मफल भी उसे प्राप्त होते हैं। कर्मफल के सिद्धान्त से जुड़ा एक सूत्र मानस में भी आता है जिसमें कहा गया है कि-
कर्म प्रधान विस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फल चाखा।। 2/218/4
ईश्वर ने इस संसार का जब निर्माण किया तो कर्म की रचना कर दी। व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों का फल भोग रहा है, ईश्वर उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता। यह कर्म सिद्धान्त तर्क संगत प्रतीत होता है। पर गहराई से देखने पर मनुष्य जीवन में प्रारब्ध कर्म भोग का यह गणित अत्यन्त जटिल प्रतीत होता है और इसे पढ़ने वाला आतंकित हुए बिना नहीं रह सकता।
मान लीजिये इस जन्म में हम सावधान भी रहें कि हमसे कोई भूल न होने पाये पर यदि हम अनेकानेक जन्मों से जुड़े हुए हैं और वह पुराना खाता अब भी चल रहा है। तब तो फिर बहुत बड़ा संकट है। मान लीजिये कोई व्यक्ति दस पाप करे और पन्द्रह पुण्य करे, फिर यह गणित करे कि चलो दस पाप से दस पुण्य कट जाने पर कम से कम पाँच शेष पुण्यों का आनन्द तो मिल ही जायगा, पर कर्मसिद्धान्त का कहना है कि ऐसा नहीं हो सकता, पाप-पुण्य दोनों का ही फल अलग-अलग भोगना पड़ेगा। इस प्रकार यह खाता और गणित दोनों बड़े दीर्घकाल तक चलने वाले हैं। ये बहुत कुछ उसी तरह के हैं जैसे पुराने समय में जब जमींदारी की प्रथा थी तो लोग साहूकार से पैसा उधार लेते थे और पीढ़ी दर पीढ़ी चुकाते रहने पर भी वह ऋण समाप्त होने को नहीं आता था क्योंकि उस ऋण पर लगने वाला ब्याज बढ़ता ही जाता था। इसलिए रामायण में कर्मसिद्धान्त के बारे में एक बात और कही गयी कि-
कठिन करम फल जान बिधाता।
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