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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
महाराज दशरथ पूर्व जन्म में मनु थे। मनु के रूप में उन्होंने भगवान् को पाने के लिये घोर तपस्या की, उपवास किया, व्रत, जप आदि अनेक साधनाएँ की। भगवान् प्रकट हुए और वरदान दिया कि तुम्हारे इच्छा के अनुरूप मैं तुम्हारे यहाँ पुत्र के रूप में जन्म लूँगा। वही मनु अगले जन्म में दशरथ बने। दशरथ बनने के बाद जब उन्होंने यज्ञ किया तब उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। इस विस्तारपूर्वक किये गये वर्णन से तो यही लगता है कि व्यक्ति को शास्त्रों में परम्परागत ढंग से विधि-निषेध सहित वर्णित कर्म और अन्य साधन एवं उपायों को जीवन में अपनाना चाहिये। अब जिनकी आस्था कृपा पर इतनी अधिक है कि वे इन सबकी आवश्यकता नहीं समझते उनकी बात अलग है। अन्यथा कर्म की महत्ता का उल्लेख बार-बार हमें प्राप्त होता है। महाराज दशरथ के प्रसंग में भी यही बात स्पष्ट रूप से सामने आती है। महाराज दशरथ को पुत्र न होने से दुःख की अनुभूति होती है। वे गुरु वशिष्ठ के पास जाते हैं और उनसे यह निवेदन करते हैं कि गुरुदेव मेरे कोई पुत्र नहीं है। वशिष्ठ जी उनसे कहते हैं कि - धरहु धीर होइहहिं सुत चारी।
राजन् ! धैर्य धारण करो। तुम्हें एक नहीं, चार पुत्र प्राप्त होंगे। पर तुम यह न मान लेना कि मैंने आशीर्वाद दे दिया इसलिए तुम्हें पुत्र प्राप्त हो जायेंगे। इसके लिये तुम्हें यज्ञ करना होगा। मानो यही साधना का, कर्म का पक्ष है। व्यक्ति से जितना हो सके अपनी पूरी सामर्थ्य से साधना करनी चाहिये, यज्ञ और तपस्या करनी चाहिये। महाराज दशरथ ने इसी का जीवन में पालन किया और इस पद्धति से वे आगे चलकर, एक महान् सौभाग्य-लाभ करने में सफल हुए। फिर इसका एक दूसरा पक्ष भी सामने आता है। महर्षि विश्वामित्र आते हैं और भगवान् राम तथा श्री लक्ष्मण को अपने साथ ले जाते हैं। हम देखते हैं कि जिस ईश्वर को महाराज दशरथ ने कठिन साधना से प्राप्त किया, विश्वामित्रजी ने उन्हें सहजता से प्राप्त कर लिया।
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