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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
सुनकर आश्चर्य होता है - कहाँ सुग्रीव और कहाँ श्रीभरत! प्रभु को सुग्रीव में भरत कहाँ से दिखायी दे गये? पर मानो सुग्रीव की बातें सुनकर प्रभु को स्मरण हो आया कि भरत ने भी प्रभुकृपा को छोड़कर, अपने जीवन में अपनी कोई अन्य विशेषता स्वीकार नहीं की और सुग्रीव भी कृपा की ही बात कह रहे हैं! इसलिए प्रभु की उदार दृष्टि में दोनों बराबर हो गये। भरतजी के चरित्र में तो यह पग-पग पर दिखायी देता है। यहाँ तक कि प्रभु जब श्रीभरत को पादुका भी देते हैं तो गोस्वामीजी मानस में यही लिखते हैं कि-
प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं। 2/315/4
प्रभु ने कृपा करके पादुका दी। भगवान् के सभी भक्त प्रभु की कृपा ही चाहते हैं, ऐसा वर्णन मानस में बार-बार आता है।
हनुमान् जी जब लंका से श्रीसीताजी का समाचार लेकर लौटते हैं तो प्रभु उनसे कहते हैं - हनुमान्! मैं तुम्हारे ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। हनुमान् जी ने कहा- महाराज! यदि आप ऐसा सोचते हैं तो मैं एक उपाय बताता हूँ। आप अपनी भक्ति मुझे दे दीजिये।
क्यों नहीं दूँगा पुत्र! तुमने भी इतना बड़ा पुरुषार्थ किया है, इतनी बड़ी साधना की है।
नहीं, नहीं महाराज! साधना से, पुरुषार्थ से मैं भक्ति नहीं चाहता, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आपकी भक्ति तो केवल आपकी कृपा से ही मिलती है, अत: प्रभु! –
नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी।। 5/33/3
आप तो कृपा करके मुझे अपनी भक्ति दे दीजिये। हनुमान् जी केवल प्रभु की कृपा चाहते हैं। अशोकवाटिका के प्रसंग में भी यह बात हमारे सामने आती है।
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