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धर्म एवं दर्शन >> कृपा

कृपा

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9812

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


हनुमान् जी को माँ ने आशीर्वाद देते हुए कहा-

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। 5/16/3


पुत्र! तुम अजर हो जाओ, अमर हो जाओ, सारे गुण तुममें आ जायँ। इसे सुनकर हनुमान् जी को कोई विशेष आनंद नहीं आया। पर जब श्रीसीताजी ने कहा कि-

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।। 5/16/4


हनुमान् जी को किष्किन्धा से श्री सीताजी की खोज में चलते समय प्रभु ने पास बुलाकर समझाया था कि क्या-क्या कार्य सम्पन्न करने हैं। पर जब हनुमान् जी लंका से वापस लौटने लगे तो माँ ने इससे बिलकुल उल्टी बात कही। उन्होंने कहा- हनुमान्! अब तुम्हें कुछ भी नहीं करना है, जो कुछ भी करना होगा, वे प्रभु ही करेंगे। इस तरह प्रभु की कृपा का आशीर्वाद देकर माँ ने हनुमान् जी को कृतकृत्य कर दिया। इसीलिए हनुमान् जी के लंका से लौटने पर जब प्रभु ने उनसे पूछा कि हनुमान्! तुम्हारी इस यात्रा में जाने और वापस लौटने के अनुभवों में कुछ अन्तर था क्या? तो उन्होंने कहा - हाँ, महाराज! अंतर था। जाते समय तो पग-पग पर विघ्न आये। मैनाक, सुरसा, सिंहिका और लंकिनी आदि के रूप में कई बाधाएँ आयीं।
और लौटते समय कौन-कौन मिले?

कोई भी नहीं मिला प्रभु! वापसी की यात्रा तो बिलकुल निर्विघ्न रूप से संपन्न हो गयी। सुनकर आश्चर्य होता है - यात्रा में जाते समय जो-जो स्टेशन पड़े वापसी में भी वे ही स्टेशन पड़ने चाहिये थे। पर हनुमान् जी ने अंतर बताते हुए कहा - प्रभु! मेरे जाने और लौटने के मार्ग अलग-अलग थे। मैं साधना के मार्ग से गया था, इसलिए बाधाएँ तो स्वाभाविक रूप से आनी ही थीं। पर लौटते समय मैं कृपा-मार्ग से आया और प्रभु-कृपा में तो बाधा आने की संभावना ही नहीं है। साधना के मार्ग में बाधाएँ तो हो सकती हैं पर प्रभु की कृपा का मार्ग पूरी तरह से निष्कंटक है। इसीलिए सभी भक्त प्रभु से उनकी कृपा की प्रार्थना करते हैं।

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