धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
तो प्रतापभानु ने कहा- महाराज! आप ऐसी कृपा कर दें कि जिससे मैं कभी बूढ़ा न होऊँ, कभी मरूँ नहीं, युद्ध में मुझे कोई हरा न सके और सौ कल्प तक मेरा एक छत्र राज्य बना रहे।
प्रतापभानु के मन में कामनाओं की जो गठरी छिपी हुई थी वह सामने आ गयी। कपट-मुनि ने उसके इस 'लोभ' का ही 'लाभ' लिया। ठग तो ठग होता ही है, पर ठगा जाने वाला भी तो अपने लोभ के कारण ठगा जाता है। समाचार पत्रों में बहुधा इस तरह के समाचार आते ही रहते हैं कि किसी साधुवेषधारी व्यक्ति ने नोट और गहने दूना बनाने के बहाने ठग लिया, तो जिसने ठग लिया, वह व्यक्ति साधु नहीं हो सकता, वह तो हड़पने के लिये ही आया होगा, पर जो व्यक्ति दस मिनट में अपने नोटों को दूना बनवाना चाहता है, वह कोई कम लोभी है क्या? वस्तुत: दोनों एक ही जैसे हैं। यह तो बुद्धिमान् ठग और मूर्ख लोभी की लड़ाई है और इसमें बुद्धिमान् ठग तो जीतेगा ही।
कपटमुनि ने प्रतापभानु से कहा - राजन्! यह सब हो सकता है, बस केवल ब्राह्मण के शाप का ही भय है। पर तुम चिन्ता मत करो, उसका भी एक उपाय मेरे पास है। मैं यदि भोजन बना दूँ और तुम उसे ब्राह्मणों को खिला दो तो इससे वे तुम्हारे वश में हो जायँगे और वे तुम्हें आशीर्वाद दे देंगे जिससे तुम अजर-अमर हो जाओगे। विवेकहीन और लोभी व्यक्ति ऐसी बातों में विश्वास भी कर लेते हैं और परिणाम में हानि ही उठाते हैं और दुःख पाते हैं। कुछ समय बाद कालकेतु राक्षस प्रतापभानु के पुरोहित का वेष बनाकर आता है। वह भोजन तैयार करता है। उस भोजन में वह विप्र-मांस भी मिला देता है और फिर माया से उसे अन्न के विविध व्यंजनों का रूप दे देता है। प्रतापभानु पूरे ब्राह्मण समाज को निमंत्रित करता है। उन्हें आसन प्रदान करता है, उनकी पूजा करता है और फिर सबको भोजन परोसता है। फिर वर्णन किया गया कि जब ब्राह्मण भोजन करने के लिये प्रस्तुत होते हैं तो अचानक आकाशवाणी होती है जिसमें एक आदेश था-
ब्राह्मणों आप अपने-अपने घरों को लौट जाइये।
भयउ रसोई भूसुर माँसू। 1/172/6,7
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