धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
क्योंकि क्रोध तो इसी खण्ड-वृत्ति और भेद-बुद्धि से ही उत्पन्न होता परशुरामजी को खण्डित धनुष को देखकर इतना अधिक क्रोध आया कि उनकी वाणी में कठोरता आ गयी और कड़वापन आ गया। आवेश का यही सबसे बुरा रूप है कि जब व्यक्ति बिना सोचे-समझे बोलने लगता है, बकने लगता है। परशुरामजी की स्थिति भी कुछ ऐसी ही दिखायी देती है। जनकजी से प्रश्न करते समय गोस्वामीजी उनकी क्रोधपूर्ण स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि -
वे जनकजी से यह नहीं पूछते कि 'जनक! धनुष किसने तोड़ा? अपितु वे क्रोध में भरकर कहते हैं -
अरे मूर्ख जनक! जनकजी को मूर्ख कहे बिना भी यह प्रश्न पूछा जा सकता था! जनकजी जैसे महान् ज्ञानी को, जिनसे तत्त्वज्ञान प्राप्त करने बड़े-बड़े मुनिगण आते हैं, 'मूर्ख' कहना तो उचित प्रतीत नहीं होता। परशुरामजी इतने अधीर हैं कि जनकजी कुछ उत्तर दें इससे पूर्व ही वे स्वयं फिर से बोलने लगते हैं और कहते हैं कि -
उलटउँ महि जहँ लगि तब राजू।। 1/269/4
जल्दी बताओ! नहीं तो जहाँ तक तुम्हारा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी को मैं उलट-पुलट दूँगा। यही है क्रोध का अतिरेक! वे एक राजा को दण्ड देने के लिये सारे राज्य को नष्ट करने के लिये उद्यत हो जाते हैं।
जनकजी डर के मारे बोल नहीं पाते हैं। वे सोचते हैं कि इन्हें क्या उत्तर दूँ? क्योंकि संयोग ऐसा था कि जिस समय परशुरामजी ने यह प्रश्न पूछा, उस समय श्रीराम परशुरामजी के सामने ही खड़े हुए थे। भगवान् राम को देखकर परशुरामजी को ऐसा लगा ही नहीं कि इस राजकुमार ने धनुष तोड़ा होगा! उन्हें तो यही लगा कि यह नन्हा-सा सुंदर, सुकुमार बालक, जैसे बच्चे मेला-उत्सव देखने आते हैं, उसी तरह इधर आ गया होगा। किन्तु जनकजी भयभीत हो गये कि यह ज्ञात हो जाने पर कि श्रीराम ने ही धनुष तोड़ा है, न जाने वे क्या कर बैठें? और जो बुरे राजा थे, वे सब प्रसन्न हो गये।
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