धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
विश्वामित्रजी भगवान् राम और श्री लक्ष्मण को लेकर परशुरामजी के निकट गये। विश्वामित्रजी एवं परशुरामजी दोनों ही महान् विभूति तो थे ही, संबंधी भी थे। दोनों गले मिले फिर विश्वामित्रजी ने राम-लक्ष्मण से कहा - इन्हें प्रणाम करो! दोनों भाइयों ने प्रसन्नतापूर्वक परशुरामजी को दण्डवत् प्रणाम किया। परशुरामजी ने आशीर्वाद देने के लिये जब उनकी ओर देखा, तो जीवन में पहली बार वे अपना क्रोध कुछ क्षणों के लिये भूल गये। उन्हें लगा कि ये तो बड़े सुन्दर हैं! कौन हैं ये दोनों राजकुमार? कहाँ से आये हैं? परशुरामजी ने बड़े प्रेम से उन्हें आशीर्वाद दिया। गोस्वामीजी लिखते हैं -
पद सरोज मेले दोउ भाई।।
रामु लखनु दसरथ के ढोटा।
दीन्हि अतीत देखि भल जोटा।।
रामहि चितइ रहे थकि लोचन।
रूप अपार मार मद मोचन।। 1/268/6,8
भगवान् राम पर तो उनकी दृष्टि ही अटक गयी, बस देखते ही रह गये। अब यदि वे भगवान् राम को देखते रह जाते, तब तो सारा झगड़ा ही समाप्त हो जाता, क्योंकि उस समय वे अपना क्रोध भूल गये थे। पर राम को देखते-देखते अचानक उनकी दृष्टि टूटे हुए धनुष पर पड़ गयी-
गोस्वामीजी यहाँ बड़ा सुन्दर सूत्र देते हैं। भगवान् राम हैं 'अखण्ड' क्योंकि ब्रह्म तो अखण्ड होता है-
और संसार में सब कुछ खंड-खंड रूप में ही दिखायी देता है। देश, प्रान्त, जाति, भाषा, व्यक्ति और परिवार आदि सब अलग-अलग हैं और सबके साथ व्यक्ति के संबंध भी अलग-अलग हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि ज्योंही परशुरामजी ने-
खंडित धनुष को देखा, त्योंही उन्हें फिर से क्रोध आ गया। संकेत यही है कि अखण्ड को देखियेगा तो क्रोध शांत हो जायगा और खण्ड को देखियेगा तो क्रोध आये बिना नहीं रहेगा। अगर यह दिखायी दे जाय कि 'अखण्ड ईश्वर सबके हृदय में विद्यमान है, तो कोई झगड़ा नहीं होगा, पर जब यह दिखायी दे कि 'यह तो मेरे प्रान्त का नहीं है, मेरी जाति का नहीं है अथवा मेरा संबंधी नहीं है, तब तो क्रोध आयेगा ही।
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