धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
मैं सोचता हूँ कि प्रणाम करते समय आज भी अपना और अपने पिता का नाम अवश्य बताना चाहिये। मैं तो इस संबंध में कई बार बहुत संकट का अनुभव करता हूँ। सारे देश में भ्रमण करते समय कई ऐसे लोग भी मिल जाते हैं जो पहले कभी कथा में आये रहे होंगे या कहीं मिले रहे होंगे। वे यह आशा करते हैं कि 'मैं उन्हें पहचान लूँ।'
अब स्थान-स्थान पर इतनी बड़ी संख्या में लोग मिलते हैं कि सबके नाम तो याद नहीं रह सकते। कई व्यक्ति जब मुझसे पूछ देते हैं कि आपने मुझे पहचाना? तो उस समय मैं सोचता हूँ कि क्या कहूँ? यदि नहीं पहचाना कहूँ तो उन्हें बुरा लगेगा वाह! ये मुझे नहीं पहचान रहे हैं? हाँ, हाँ! पहले देखा है। यदि इतना सुनकर वे शान्त हो जायँ, तो उनकी कृपा! पर कई व्यक्ति इसके बाद भी पूछ देते हैं - तो मेरा नाम बताइये। ऐसी स्थिति में मैं बड़े संकट में पड़ जाता हूँ क्योंकि नाम तो बता नहीं पाता! इसलिये मुझे लगता है कि पुरानी परम्परा बहुत बढ़िया थी। प्रणाम करने वाले व्यक्ति साथ-साथ अपना परिचय भी दे दिया करते थे।
'मानस' में वर्णन आता है कि भगवान् राम ने जब सतीजी को प्रणाम किया तो इसी परम्परा का पालन किया। गोस्वामीजी कहते हैं कि -
पिता समेत लीन्ह निज नामू।। 1/52/7
भगवान् राम ने हाथ जोड़कर प्रणाम करते समय यह कहा कि 'मैं दशरथ का पुत्र राम आपको प्रणाम करता हूँ।' परशुरामजी आये तो प्रणाम करने वालों की भीड़ लग गयी। सभी कहने लगे कि मैं अमुक राजा का पुत्र हूँ जिसे आपने क्षमा कर दिया था, अब आप मेरे ऊपर भी कृपा कीजिये। यदि परशुरामजी, उसका परिचय सुनकर, सहज भाव से भी उसकी ओर देख देते तो वह राजा भयभीत हो जाता -
सो जानइ जनु आइ खुटानी।। 1/268/3
वह सोचता था कि 'अब तो प्राण गये!' परशुरामजी का स्वभाव इतना क्रोधपूर्ण हो गया था।
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