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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


समाज में, संसार में धन के बिना काम व्यवहार चलता नहीं। जो धन की निंदा करते हैं वे भी धन को लेने के लिये वाध्य हैं। अत: धन तो अवश्य चाहिये पर यह सावधानी भी आवश्यक है कि कहीं लोभ हमें पकड़ न ले। हम कहीं लोभग्रस्त न हो जायँ। गोस्वामीजी ने मानो यही संकेत किया कि लोभ का आश्रय लेकर उन्नति करें, आगे बढ़ें पर लोभग्रस्त न हों, क्योंकि तब अग्रसर होने के स्थान पर डूब जाने का संकट आ जायेगा तो ऐसी स्थिति में हम क्या करें? भाषण से हमें यह ज्ञात हो जाता है पर इससे छूटें कैसे? इसका अर्थ है कि तब हम भगवान् से ही प्रार्थना करें।

हम यह तो नहीं कह सकते कि हम अर्थ चाहते ही नहीं। जीवन में लाभ को स्वीकार करने की बात भगवान राम अपनी नवधा-भक्ति के उपदेश में कहते हैं पर उस लाभ को लोभ के स्थान पर संतोष की दिशा में ले जाने की बात कहते हैं। भगवान् राम शबरी से यह कहते हैं कि -
आठवँ जथा लाभ संतोषा।

जितना लाभ हो, जितना प्राप्त हो जाय उतने से ही संतुष्ट हो जाना चाहिये। यदि यह कहा जाय कि भक्त को कुछ नहीं चाहिये तो यह पाखंड हो जायगा। जद्यपि लाभ की स्वीकृति आठवीं भक्ति में है पर संतोष की बात बड़ी कठिनाई से जीवन में आती है। मानो आठवें क्रम में इसे रखने का यह भी संकेत है।

लोभ और लाभ का एक काल्पनिक आनन्द भी है। आप देखेंगे! दोनों शब्दों में अक्षर एक ही है ल और भ। पर दोनों में मात्रा का अंतर है। अ वर्ग की पहली मात्रा से जुड़कर लाभ बनता है। पर जब मात्र आ इ ई से बढ़ते-बढ़ते ओ तक पहुँचता है तब लोभ बन जाता है।

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