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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


कई लोग यह भ्रम पाल लेते हैं कि जो अच्छे लोग होते हैं उन्हें धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है और बुरे व्यक्ति को ये नहीं मिलते। पर यह धारणा ठीक नहीं है। बुरे से बुरा व्यक्ति भी जीवन में उन्नति कर सकता है। इतिहास में ऐसा देखा जा सकता है पर गोस्वामीजी उसे एक भिन्न रूप देते हैं। वे अयोध्या और लंका दोनों की ही समृद्धि और उन्नति का चित्रण करते हैं। पर दोनों अंतर की ओर भी संकेत करते हैं। अयोध्या एक समुन्नत नगर है, यह ठीक है पर लंका की समृद्धि में क्या कोई कमी है? लंका तो चार सौ कोस की स्वर्ण नगरी है। गोस्वामीजी लंका की उन्नति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि -
सुख संपति सुत सेन सहाई।
जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई।। 1/180/1

इन दस वस्तुओं की लंका में निरन्तर उन्नति हो रही है-
नित नूतन सब बाढ़त जाई।

पढ़कर लगता है कि जब सुख बढ़ रहा है, सम्पत्ति बढ़ रही है, पुत्र बढ़ रहे हैं, सेना विशाल हो रही है, सहायक बढ़ते जा रहे हैं, निरन्तर विजय प्राप्त हो रही है, बल बढ़ रहा है, बुद्धि बढ़ रही है और बड़प्पन में वृद्धि हो रही है तब फिर बाकी क्या रहा? पर गोस्वामीजी ने एक वाक्य में बता दिया कि लंका में उन्नति होने पर भी -
जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।। 1/180/2

रावण का लोभ निरंतर बढ़ते ही जा रहा है। इसका अभिप्राय है कि इन सबके बढ़ने के बाद भी उसके जीवन में कहीं से संतोष का उदय नहीं हो रहा है। वर्णन आता है कि रावण जहाँ कहीं सुंदरी कन्या के विषय में सुनता था तो वह आदेश देकर कहता था कि अपनी कन्या मुझे अर्पित कर दो, वह दे देता तो ठीक! अन्यथा वह बलपूर्वक जीतकर उसे अपने महल में ले आता था। इस प्रकार उसने न जाने कितनी राजकुमारियों व स्त्रियों को अपनी पत्नी बना रखा था। गोस्वामीजी कहते हैं कि -
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरी निज बाहु बल बहु सुंदरि बर नारि।। 1/182-ख

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