धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
आप मुझे आज्ञा दीजिए। परशुरामजी चक्कर में पड़े कि तोड़ने वाले को मुझसे बात करनी चाहिए, परन्तु ये तो कह रहे हैं कि मुझे आज्ञा दीजिए। परिणाम यह हुआ कि उनको लगा कि श्रीराम का स्वभाव इतना शीलवान् और इतना सुन्दर है कि तोड़ने वाले को बचाने के लिए कह रहे हैं कि तोड़ने वाला आपका सेवक होगा।
वस्तुतः धनुष शंकरजी का शिष्य है और परशुरामजी भी शिष्य हैं, परन्तु धनुष के रूप में शिष्य बाजी ले गया और परशुरामजी पिछड़ गये। शंकरजी बड़े प्रसन्न हैं और धनुष की प्रसन्नता की तो कोई सीमा ही नहीं है। भगवान् शंकर मुक्ति के दाता हैं। धनुष तो उनके हाथ में ही रहता है। भगवान् शंकर से एक दिन धनुष ने पूछा कि आप संसार को तो मुक्ति देते हैं, लेकिन मुझको तो बाँधते हैं। बिना डोरी बाँधे तो धनुष चलेगा ही नहीं। तब मेरी मुक्ति कब होगी? तब शंकरजी ने चेले को मन्त्र दे दिया कि जब तक रहोगे, तब तक बँधोगे जरूर। जब तक ‘मैं’ की सत्ता है तब तक बन्धन है, उससे छुट्टी नहीं। जब तुम नहीं रहोगे तो अपने आप मुक्त हो जाओगे। जब भगवान् राम आयेंगे तो तुम्हें इस बन्धन से सदा-सदा के लिए मुक्ति मिल जायेगी।
यह धनुर्भंग मुक्ति की प्रक्रिया थी। सदा-सदा के लिए बन्धन से मुक्त हो गया। किसी ने कहा कि श्रीराम ने बड़ा विचित्र व्यवहार किया। तुम्हें उठाकर फिर नीचे पटक दिया। धनुष ने कहा कि आनन्द ही आनन्द है, क्योंकि उठाया तो अपने हाथों में और गिराया तो अपने चरणों में। मुझे इतना बड़ा सौभाग्य मिला, इससे बढ़कर मेरे लिए सौभाग्य की और क्या बात होगी? शंकरजी प्रसन्न हैं, धनुष बहुत प्रसन्न है, पर परशुरामजी क्रुद्ध हो रहे हैं। श्रीराम ने जब यह कहा कि मैंने तोड़ा है तो इसका अभिप्राय यह है कि उनमें कर्तृत्व की स्वीकृति नहीं है। बस! दोनों रामों में यही अन्तर है। एक राम में कर्तृत्व का अभिमान है और दूसरे राम में कर्तृत्व की अस्वीकृति है। एक राम कहते हैं-
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। 1/282/1
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