धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
क्रोध में जनक को जड़ कह दिया। जनक तो संसार के प्रसिद्ध ज्ञानी थे। तोड़ने वाले की खबर हम लेंगे ही, परन्तु सबसे पहला मूर्ख तू ही है, क्योंकि तोड़ने का झगड़ा तूने ही खड़ा किया है, तू ही बता! यदि तूने नहीं बताया तो हम तुझे ही दण्ड देंगे तथा बता दोगे तो तोड़ने वाले को दण्ड देंगे और नहीं बताओगे तो हम सबका सिर काट लेंगे। उनका बड़ा विचित्र आक्रोश था। इतना क्रोध! इतना तीव्र आवेश!! पूछते हैं धनुष किसने तोड़ा? महाराज श्रीजनक नहीं बोलते हैं। भगवान् श्रीराम तो परशुरामजी के सामने थे।
परशुरामजी अब तक यह नहीं समझ पाये कि धनुष तोड़ने वाले श्रीराम हैं। क्योंकि धनुष तोड़ने वाले के प्रति उनकी जो कल्पना थी, श्रीराम में उसका कोई लक्षण नहीं मिला। उनकी धारणा थी कि धनुष तोड़ने वाला सीना फुलाये खड़ा होगा। ध्यान से देखने पर लगा कि ऐसा कोई नहीं है। तब सोचा कि अरे! मेरे आते ही सारी अकड़ दूर हो गयी, अब तो वह जरूर डर के मारे काँप रहा होगा! देखा कि सारी सभा ही खड़ी होकर काँप रही है, परन्तु जो तोड़ने वाला है, वह न तो काँप रहा है और न अकड़ रहा है, उसके अन्तःकरण में न तो किसी प्रकार का भय है और न विजय का गर्व है, वह तो दोनों से मुक्त है। अपने सहज शुद्ध स्वरूप में स्थित है। इतना बड़ा कर्म हुआ, लेकिन यहाँ कर्तृत्व का कोई अभिमान नहीं है। फलासक्ति भी नहीं है। सहज भाव से कार्य हुआ और श्रीराम सहज भाव से खड़े हुए हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। श्रीराम के उत्तर की भाषा दार्शनिक है। वे कह सकते हैं कि धनुष मुझसे टूट गया है, आप क्षमा कर दीजिए या दण्ड दे दीजिए, लेकिन ऐसा नहीं किया, वे कहते हैं –
नाथ संभु धनु भंजनिहारा ।
होइहि कोउ एक दास तुम्हारा।। 1/270/1
इस वाक्य को सुनकर तो कल्पना भी नहीं हो सकती कि ये ही धनुष तोड़ने वाले हैं। ये तो कह रहे हैं कि धनुष तोड़ने वाला कोई दास होगा और वह भी आपका, पर अगला वाक्य है –
आयसु काह कहिअ किन मोही। 1/270/2
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