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धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद

परशुराम संवाद

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :35
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9819

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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन


अचानक राम से दृष्टि हटी और धनुष पर गयी जो खण्डित होकर पड़ा हुआ था। श्रीराम हैं अखण्ड –
    ज्ञान अखण्ड एक सीताबर।
    माया बस्य जीव सचराचर।। 7/77/4

और धनुष खण्डित है। जब अखण्ड से हटकर दृष्टि खण्ड पर जायेगी, जब नित्य से हटकर दृष्टि अनित्य पर जायेगी तो ऐसा ही होगा। परशुरामजी के चरित्र से तो हमें प्रेरणा मिलती है कि जहाँ हमारी दृष्टि अखण्ड ब्रह्म से जुड़ी हुई है और उस अखण्डता का बोध हो रहा है कि उस अखण्ड से जुड़े हुए हम स्वयं भी अखण्ड ही हैं, तब न तो कोई विकार है, न दोष है। ज्योंही वहाँ से दृष्टि हटी कि हम खण्ड में आ गये। लक्ष्मणजी की भाषा व्यंग्यभरी भले ही हो, लेकिन उस भाषा में थोड़ा दार्शनिक तत्त्व आपको मिलेगा। परशुरामजी को बाँधने वाला कोई दूसरा व्यक्ति है क्या?

गोस्वामीजी ने लिखा कि जब भगवान् राम और परशुरामजी का अन्तिम संवाद हुआ तो जैसे कोई वस्तु न हो और परदा पड़ा हुआ हो तो परदा हटाने के बाद भी दिखलायी देगा कि कुछ नहीं है और कोई वस्तु पहले से हो और परदा पड़ा हुआ हो तो परदा हटाते ही वह वस्तु दिखायी देने लगेगी। तब परशुरामजी, लक्ष्मणजी और भगवान् राम के संवाद का फल क्या हुआ? गोस्वामीजी ने वाक्य लिखा –
    सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के।
    उघरे  पटल  परसुधर  मति  के ।। 1/283/6

परशुरामजी की बुद्धि पर जो आवरण छा गया था, वह आवरण दूर हो गया। बस! यह आवरण ही तो समस्या है। परशुरामजी की बुद्धि पर केवल आवरण छा गया था और कुछ नहीं हुआ। न लड़ाई हुई, न झगड़ा हुआ, केवल परदे को हटाया गया। यह काहे का परदा है, जिसके कारण परशुराम राम को पहचानने में समर्थ नहीं हैं। व्यक्ति अपने स्वरूप को पहचानने में समर्थ नहीं है, वह कौन-सा आवरण है? परशुरामजी पूछते हैं –
    कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा। 1/269/3

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