धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
गुरुजी कुल्हड़ में जल पीकर चेले को कुल्हड़ दे दें तो सेवा इसी में है कि चेला उसको तोड़ दे, फेंक दे। शंकरजी ने जिस धनुष का त्याग कर दिया उसको तोड़ने में न तो शंकरजी का अपमान है, न धनुष का अपमान, न तो आपका अपमान है, परन्तु परशुरामजी ने इस सत्य को नहीं पहचाना। क्योंकि उन्होंने कर्तृत्व के अभिमान को स्वीकार कर लिया है, अकर्तृत्व की भाषा उनके जीवन में नहीं है। लक्ष्मणजी ने देखा कि परशुरामजी तो इस बात को समझ नहीं रहे हैं। वे तो कहते हैं कि जिसने धनुष तोड़ा है, वह तो मेरा सहस्रबाहु के समान शत्रु है। शत्रु और मित्र क्या होते हैं? यह तो आपकी व्याख्या पर निर्भर है।
धनुष तोड़ने वाला शत्रु है कि मित्र? यह तो केवल दृष्टि का भेद है। शंकरजी को लगता है कि धनुष तोड़ने वाले मेरे प्रिय प्रभु हैं। धनुष को लगता है कि मुझे तोड़कर प्रभु ने बड़ी कृपा की, किन्तु परशुरामजी की व्याख्या में वही शत्रु है। शत्रु और मित्र तो हमारी व्याख्या पर निर्भर है। कभी-कभी तो ईश्वर भी हमको शत्रु लगने लगता है, जब हम अपनी दृष्टि से निर्णय करते हैं। परशुरामजी ने यही कहा कि-
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा।
सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।
नत मारे जैहहिं सब राजा।। 1/270/4-5
तब लक्ष्मणजी आये। लक्ष्मणजी की भूमिका थोड़ी कठिन है, उनकी भूमिका है सन्त की। वे समझ गये कि परशुरामजी की भाषा क्रोध है। अब तो मैं ही इनको इन्हीं की भाषा में समझा सकता हूँ। इसलिए अब मुझे बोलने की आवश्यकता है और तब आचार्य की वाणी में लक्ष्मणजी ने बोलना शुरु किया। उन्होंने परशुरामजी की सही-सही नाड़ी पकड़ ली। लक्ष्मणजी का एक-एक शब्द अध्यात्मक तत्त्व से ओत-प्रोत है। लक्ष्मणजी ने कहा कि-
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाई।
कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाई।। 1/270/7
समस्या न तो धनुष है और न टूटना है, समस्या तो बस एक ही है जिसे उन्होंने एक वाक्य में कह दिया –
एहि धनु पर ममता केहि हेतु। 1/270/8
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