धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
दुःख ममता के कारण होता है, वस्तु के कारण नहीं होता। वस्तु के कारण होता तो आप अयोध्या में आते, क्योंकि वहाँ मेरे द्वारा अनेक धनुष तोड़े गये। वस्तु यदि कारण होती तो शंकरजी को दुःख होता। उन धनुषों से आपको ममता नहीं थी, इसलिए आपको क्रोध नहीं आया। शंकरजी को इस धऩुष से ममता नहीं थी। अतः उनको दुःख नहीं हुआ। आपने इस धनुष से ममता जोड़ ली। अहंता जोड़ ली कि यह तो मेरा अपमान है। मेरे गुरुजी की वस्तु को किसी ने तोड़ दिया। सारे दुःख का हेतु है अहंता और ममता। कर्तृत्व का अभिमान पाल लिया, अनित्य से ममता जोड़ ली। परशुरामजी अपने स्वरूप को भूलकर क्रोध में भर गये, किन्तु सामने राम खड़े हैं, उनकी तो विलक्षणता यही है जिसका संकेत लक्ष्मणजी ने किया कि महाराज! यदि श्रीराम से धनुष टूट भी गया तो मैं आपसे पूछता हूँ –
का छति लाभु जून धनु तोरें। 1/271/2
इसमें श्रीराम को न तो कोई घाटा हुआ और न लाभ हुआ। परशुरामजी को बहुत क्रोध आया कि वाह! न टूटने में तो घाटा ही घाटा था और टूटने में तो लाभ ही लाभ है, क्योंकि टूटने से सीताजी मिलीं, कीर्ति मिली। परशुरामजी यह नहीं जानते कि सीताजी तो मिली-मिलायी हैं। उनका तो शाश्वत सम्बन्ध है और कीर्ति के सम्बन्ध में श्रीराम ने कहा कि अगर सारा झगड़ा नाम का ही है तो–
राम मात्र लघु नाम हमारा।
परसु सहित बड़ नाम तोहारा।। 1/281/6
नाम तो आपका ही बड़ा है। नाम तो केवल व्यवहार चलाने के लिए ही है। मेरा तो छोटा-सा दो ही अक्षर का नाम है। देखिए! शस्त्र तो दोनों धारण करते थे, एक परशु तो दूसरे धनुष, परन्तु परशुरामजी का नाम परशुराम पड़ा, परन्तु श्रीराम को किसी ने धनुषराम नहीं कहा। अर्थ यह है कि भगवान् राम ने धनुष रखते हुए भी न तो धनुष से ममता जोड़ी, न ही उसको महत्त्व दिया। परशुरामजी ने फरसे को इतना महत्त्व दिया कि मानो फरसे से बढ़कर संसार में कुछ है ही नहीं।
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