धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
इसी के द्वारा व्यवहार चलाता हूँ और धनुष को चुनने का अर्थ क्या है? फरसे और धनुष में अन्तर क्या है? धनुष की डोरी चाहे जब चढ़ा लीजिए और चाहे जब उतार दीजिए, पर फरसा तो जब चढ़ेगा तब चढ़ा ही रहेगा। उतरने की तो कोई बात ही नहीं है। दोनों में अन्तर यही है। परशुरामजी को ईश्वर भी शत्रु प्रतीत हो रहा था, लक्ष्मणजी पर भी अत्यन्त क्रोध आ रहा था, यद्यपि लक्ष्मणजी तो उनको सत्य का साक्षात्कार कराना चाहते थे। श्री परशुरामजी धनुष के जाते ही प्रसन्न हो गये और श्रीराम की स्तुति करने लगे। जिसमें नौ बार ‘जय’ शब्द का प्रयोग किया। किसी ने पूछा कि यह बार-बार जय-जय कहने का क्या अभिप्राय है? आपने नौ बार जय शब्द का प्रयोग क्यों किया? परशुरामजी ने कहा कि श्रीराम ने कहा था –
नव गुन परम पुनीत तुम्हारें। 1/281/7
मैंने नवों गुण श्रीराम को ही अर्पित कर दिये। अब ये गुण यहीं चरणों में ही रखें। मैं तो जहाँ का तहाँ निर्गुण ही रहूँगा। स्वयं को पहचानकर जो आनन्द होता है वही दिव्य आनन्द परशुरामजी को मिला। किसी ने परशुरामजी से पूछा कि आप तो इतने प्रसन्न होकर जा रहे हैं कि जैसे जीतकर जा रहे हों, पर आपका तो धनुष छिन गया। परशुरामजी ने कहा कि कन्धे पर बोझ बहुत दिनों तक ढोना पड़े तब कोई उतारने वाला मिल जाय तो प्रसन्नता होती है कि दुःख होता है। मैंने धनुष को बहुत ढोया, अब श्रीराम ने उसे सँभाल लिया तो मैं उस भार से मुक्त हो गया। इस प्रकार वे आनन्दित हो जाते हैं।
वस्तुतः यह राम-राम संवाद व्यंग्य-विनोद प्रतीत होने पर भी सत्य के साक्षात्कार का प्रसंग है। अगर रावण के समान मोह की वृत्ति के कारण हम लाभ न उठा सकें तो यह लंका की वृत्ति है और यदि हम परशुरामजी के समान संवाद में दिव्य सत्य का संकेत देखें और उसे ग्रहण करें तो हम धन्य हो सकते हैं।
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।। 7/124क
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