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प्रसाद का तात्विक विवेचन
इसी भाव से आप वस्तु को ग्रहण कीजिए! आपने प्रसाद लिया! आनन्द का भी अनुभव हुआ, भूख भी मिटी, अधिकार की वृत्ति, मैं और मेरापन की वृत्ति भी नहीं रह गयी। अगर यह बात हो गयी हो तो प्रसाद है। यह मत समझियेगा कि यह एक लड़कपन का सूत्र है। एक बार एक महिला आयी, बड़े सुन्दर आभूषणों को लायी, जिनमें हीरे जड़े हुए थे। वह बड़ी भाबुक थीं। बोली कि इनका प्रसाद लगा दीजिए। मैंने कहा कि इसका क्या अर्थ है? क्यों लायी हैं? उन्होंने कहा कि रातभर यहीं रहने दीजिए। मैंने कहा कि इसमें खतरा है, आप अभी ले जाइए।
उन आभूषणों का प्रसाद तो केवल अपने लिए ही था, दूसरों को बाँटने के लिए तो था नहीं। ऐसा तो था नहीं कि जब प्रसाद हो गया तो वह बाँट दिया जायेगा। मैंने कहा कि भई! रातभर ये आभूषण रहें और ये भगवान् को पसन्द आ जायँ तो फिर मैं क्या करूँगा? इसलिए इनको आप अभी ले जाइए तो अच्छा है। जिसे हम प्रसाद कहते हैं, उसमें मैं और मेरेपन की वृत्ति का सर्वथा परित्याग अपेक्षित है। प्रभु के संस्पर्श की अनुभूति होने पर ऐसे प्रसाद को जब हम ग्रहण करते हैं तो एक साथ कितने भाव हमारे मन में, जीवन में आ जाते हैं। प्रसाद की यह जो सांकेतिक भाषा है, उसके सन्दर्भ में महर्षि वाल्मीकि यह कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु को भगवान् का प्रसाद बनाइए और उसको बाँटिए। जब प्रसाद बन गया तो उस पर आपका अधिकार नहीं रह गया, उसे सबको देना है। देने के साथ-साथ कितनी बातें जुड़ जायँगी?
यही सूत्र था कि जब भरतजी ने यह कहा कि प्रभु! प्रसाद दीजिए। तो प्रसाद में क्या दिया उनको? लड्डू मिष्ठान्न या हलुआ तो नहीं दिया। काठ की खड़ाऊँ दे दी। यदि मिठाई बढ़िया हो तो कहते हैं कि आज का प्रसाद बड़ा स्वादिष्ट है और मिठाई घटिया हो तो प्रसाद खराब हो गया। ऐसा नहीं है। प्रसाद तो प्रसाद है। काठ की खड़ाऊँ दी गयी, वह भी प्रसाद है। कितना बढ़िया सूत्र दिया भरतजी ने। बोले, प्रभो! आप अयोध्या का राज्य चलाने के लिए कह रहे हैं! राज्य-सिंहासन का व्यवहार करने के लिए कह रहे हैं!! गुरुजी ने भरतजी से कहा कि तुम राज्य नहीं करना चाहते तो कोई बात नहीं-
सौंपेहु राजु राम के आएँ। 2/174/8
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