धर्म एवं दर्शन >> प्रसाद प्रसादरामकिंकर जी महाराज
|
0 |
प्रसाद का तात्विक विवेचन
आपकी ही वस्तु हम आपको समर्पित करते हैं। न तो वस्तु हमारी है और न उस पर हमारा अधिकार है। वस्तुत: सारे अनर्थों की जड़ तो मैं और मेरापन है -
तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै। -वि.प. 120/5
मैं और मेरापन को आप या तो अहंता और ममता कह लीजिए, चाहे मोह कह लीजिए। यही अहंता एवं ममता अनर्थ है। अगर मैं और ममता हमारे अन्तःकरण से सचमुच दूर हो जायँ तो हमारा अन्तःकरण पवित्र हो जायेगा, प्रसन्न हो जायेगा। प्रसाद पाकर आप प्रसन्न होते हैं। इस प्रसन्नता का जो तात्त्विक अर्थ है वह है- निर्मलता। इसका अभिप्राय है कि अन्तःकरण निर्मल तत्त्व तब होता है, जब मैं और ममता का मल नष्ट हो जाता है-
बुद्धि सिरावै ग्यान मृत ममता मल जरि जाइ।। 7/117क
इसलिए भगवान् के सामने कोई वस्तु रखी गयी तो इसका उद्देश्य यही है कि मैं और मेरापन मिट जाय। आप बाजार से खरीदकर लाये तो मिठाई आपकी है, लेकिन जब उसको भगवान् के सामने रख दिया और सचमुच अर्पण कर दिया तो मेरापन मिट गया, परन्तु आजकल होता यह है कि एक सज्जन ने बहुत-सी मिठाई बनवायी और मन्दिर में भोग लगाने के लिए लाये। पुजारी ने भोग लगा दिया तो वे बोले कि आप तो इसमें से एक ले लीजिए, औरों को बाँटिए मत। मैं बीमार था तो मन्नत मानी थी कि जब मैं अच्छा हो जाऊँगा तो मिठाई चढ़ाऊँगा और आज ही मेरी बहन का विवाह है तो दोनों काम एक साथ ही सिद्ध हो जायेंगे। हनुमान जी को प्रसाद भी लग गया और विवाह का काम भी निकल गया। यह तो प्रसाद लगाने का नाटक करना है। उसका तो मैं और मेरापन छूटता ही नहीं है।
जब भगवान् को भोग लगा दिया तो हमारा अधिकार उस वस्तु से हट गया, भगवान् ने मैं भी खा लिया और मेरापन भी खा लिया, अगर वस्तुत: श्रद्धा से उनको खिलाने का प्रयत्न किया गया हो तभी यह सम्भव है। अब वह वस्तुऐं प्रसाद बन गयीं। अब वह मिठाई नहीं है, वह प्रसाद है। प्रभु ने जब अपने होंठों से उसे छू दिया तो विषय का जो दोष है, वह उसमें कैसे रह सकता है? जब प्रसाद बाँट दिया जाता है तो बाँटने वाले के मन में अगर यह वृत्ति आ जाय कि वस्तु मेरी नहीं है, केवल वही वस्तु ही नहीं, बल्कि संसार की सारी वस्तुएँ प्रभु की ही हैं-
ईशावास्यमिद सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्।। -ईश, 1
|