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प्रसाद का तात्विक विवेचन
आजकल तो प्रसाद भी एक तरह की परम्परा में आ गया है। जैसा कि लोग करते हैं, परन्तु प्रसाद के पीछे जो दर्शन है, जो भावना है, उस पर आप जरा गहराई से विचार करके देखिए। आपने भगवान् की मूर्ति के सामने मिष्ठान्न रखा, भगवान् को भोग लगाया और वह प्रसाद बन गया। मिष्ठान्न तो ज्यों का त्यों है, भगवान् ने तो कुछ खाया नहीं। फिर क्या अन्तर पड़ गया? इसका उत्तर यही है कि आपने जिस वस्तु का भोग लगाया, उस वस्तु का सच्चे अर्थों में अर्पण किया है तो उसे भगवान् ने खा लिया। जब आप संसार में किसी व्यक्ति को कुछ देते हैं तो वही वस्तु दे सकते हैं कि जो आपकी है। जो वस्तु आपकी नहीं है, उसको देने का दावा आप कर ही नहीं सकते।
महाराज श्रीजनक ने सीताजी का अर्पण बाद में किया, पहले उन्होंने कहा कि शंकरजी का धनुष टूटेगा तब मैं अर्पण का कार्य करूँगा। जनकपुरवासिनी स्त्रियों ने कहा कि इतनी कठोर प्रतिज्ञा करने की आवश्यकता क्या है? सीधे विवाह कर दो। यह क्या है कि पहले धनुष टूटेगा और तब विवाह होगा। एक बड़े महत्त्व का सूत्र मैं बताना चाहूँगा और वह यह है कि कन्यादान माने कन्या का अर्पण। अर्पण का अभिप्राय है - ममता का परित्याग। पुत्री आज तक मेरी थी और आज मैंने उसको वर के हाथों में अर्पण कर दिया और अपनी ममता त्याग दी। सही अर्थों में अर्पण किया तो ममता हट गयी, पर जनकजी कहते हैं कि सीताजी का अर्पण करने के पहले धनुष टूटना चाहिए। धनुष है - शंकरजी का अहंकार।
पहले मैं टूटेगा और तब ममता का त्याग होगा क्योंकि वस्तु का अर्पण करने के बाद भी अगर मैं बना रहा तो उसको अभिमान हो जायेगा कि मैं कितना बड़ा अर्पण करने वाला हूँ। इसलिए पहले मैं को मिटाओ और तब वस्तु का अर्पण करो और अर्पण भी क्या है? जब आप भगवान् के सामने कोई वस्तु अर्पण करते हैं तो कहते हैं-
त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।
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