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प्रसाद का तात्विक विवेचन
अब क्या विशेषता आ गयी? बुद्धिमत्ता में तो धीरता की प्रशंसा है। धीर होना चाहिए कि अधीर? धीरता तो बहुत बड़ा गुण है। धीरता तो धर्म का एक पहिया है, परन्तु यहाँ गोस्वामीजी ने कहा कि अहल्या धीर नहीं है-
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा
मुख नहिं आवइ बचन कही। 1/20/छं.-1
प्रेम से अत्यन्त अधीर हो गयी-
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी
जुगल नयन जल धार बही।। 1/210/छं-1
अन्त में अहल्या ने जो सूत्र दिया वह बड़े काम का है। अहल्या ने कहा कि अब तो मैं पवित्र हो गयी। इसी बीच में गौतमजी भी अहल्या को लेने आ गये। अहल्या ने कहा कि महाराज! क्या यह आवश्यक है कि मैं वही भूल फिर से दोहराऊँ? आपके दर्शन के लिए मुझे इतने वर्षों तक पत्थर बनकर तपस्या करनी पड़ी और तब अहल्या ने यही वर माँगा --
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी
नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा
मम मन मधुप करै पाना।। 1/210/छं-3
मेरा मन भौंरा है, आपके चरण-कमल के पराग के रस का पान करता रहे। इसका अभिप्राय यह है कि मन में अगर तृप्ति और रस का अनुभव होता रहे तो संसार के रस में क्यों पड़ना? संसार मनुष्य को विषयों में ले जाता है और विषय के बिना तो व्यक्ति जीवित नहीं रहेगा। जब शरीर ही नहीं रहेगा तो ऐसी स्थिति में क्या करें? इसका जो उत्तर दिया गया, वह यह है कि वस्तु को आप 'प्रसाद' के रूप में स्वीकार कीजिए। आप मिष्ठान्न भी ग्रहण कीजिए। सुन्दर वस्त्राभूषण भी धारण कीजिए, परन्तु इन वस्तुओं को पहले प्रसाद बनाइए और प्रसाद बना देने के पश्चात् उनको आप स्वीकार कीजिए।
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