धर्म एवं दर्शन >> प्रसाद प्रसादरामकिंकर जी महाराज
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प्रसाद का तात्विक विवेचन
महाराज पृथु के मन में आया कि मैं सौ अश्वमेध यज्ञ करके इन्द्र के पद को प्राप्त करूँ। निन्यानवे यज्ञ पूरे हो गये और जब सौंवाँ यज्ञ आरम्भ किया तो इन्द्र ने घोड़ा चुरा लिया। चारों ओर खोजा गया, लेकिन घोड़ा नहीं मिला। पता चल गया कि घोड़ा इन्द्र ने चुरा लिया है। उन्होंने कहा कि हम आक्रमण करके घोड़े को छीनकर ले आयेंगे। स्वर्ग की ओर गये, पर ऋषि-मुनियों ने रोक दिया और यज्ञ पूरा नहीं हो सका। कथा के उद्देश्य पर आपने ध्यान दिया? पृथु के पुत्र विजिताश्व चाहते तो घोड़ा ला सकते थे। निन्यानबे यज्ञ करे और सौंवा यज्ञ पूरा न हो पाये तो उसको कितना कष्ट होगा, कितना दुःख होगा? परन्तु धन्य हैं पृथु कि सौंवाँ यज्ञ पूरा न होने पर भी वे प्रसन्न और शान्त हो गये। उन्होंने इसका वही अर्थ लिया कि जो एक सत्संगी लेता है।
किसी ने पूछा कि महाराज! आपको यज्ञ पूरा न होने का दुःख क्यों नहीं हुआ? उन्होंने कहा कि अब इन्द्र बनने की मेरी इच्छा भी नहीं है। क्यों? उन्होंने कहा, 'अब मैंने देख लिया कि जो सौ यल पूरा करके इन्द्र बना है, वही इन्द्र जब चोरी भी कर सकता है तो मैंने समझ लिया कि इन्द्र बनकर भी यदि चोरी करने की लालसा बाकी है तो हम इन्द्र बनकर करेंगे भी क्या?' यही है वैराग्य! वैराग्य उअन्न हो गया। लोभ एवं लालसा व्यक्ति को चोर बना देती हैं। सिद्धान्त की बात यह है कि चाहे हम धर्म के माध्यम से कितना भी बुद्धिपूर्वक यह कहें कि यह धर्म है, यह अधर्म है, यह उचित है, यह अनुचित है, इससे समस्या का समाधान नहीं होता है। समाधान जो होगा वह भक्ति के द्वारा ही होगा।
जनकपुरवासिनी स्त्रियों से जब लक्ष्मणजी ने यह कहा कि जिन प्रभु के चरणों से पत्थर की नारी भी चैतन्य हो गयी, क्या उनकी महिमा का दर्शन आप लोगों को नहीं हुआ? तब जनकपुरवासिनी स्त्रियों ने यही कहा कि अयोध्या में पत्थर नहीं थे क्या? और क्या उन पत्थरों से इनका चरण स्पर्श नहीं होता था? एक भी पत्थर नारी नहीं बना। चमत्कार चरणों में नहीं था, चमत्कार तो उस धूलि में था और वह धूलि भी इनके चरणों में तब लगी जब ये सीताजी के नगर की ओर चले। कमाल तो भक्ति का है, ज्ञान में काहे का कमाल? बात तो सही है। ज्ञान किसी वस्तु को बदलता नहीं, जो वस्तु जैसी है, उसको वैसी ही दिखला देता है। ज्ञान के द्वारा कोई परिवर्तन नहीं होता। भगवान् राम भी जब तक अयोध्या में हैं, कोई परिवर्तन नहीं कर सकते, जब भक्ति के पथ की धूलि उनके चरणों में लगती है तब चमत्कार होता है। उन चरणों से भक्ति का संस्पर्श हो गया तो अहल्या पत्थर से नारी बन गयी-
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट मई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही।। 1/210
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