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प्रसाद का तात्विक विवेचन
इन्द्रपद मिलने पर क्या होता है? भोगों की प्राप्ति होती है। इसका अर्थ हुआ कि व्यक्ति इतना होने पर भी भोगों से तृप्त नहीं हो पाया, शरीर बूढ़ा हो गया, रोगी हो गया और अन्त में मृत्यु हो गयी। व्यक्ति में लालसा और भोगों की जो इच्छा है, वह कहाँ तक जा सकती है? यह इस कथा में देखने को मिलता है। सौ यज्ञ करने पर उसको इन्द्रपद मिल गया तो अब भोगों की प्राप्ति में कोई समस्या नहीं है, शरीर में वृद्धत्व और मृत्यु की भी समस्या नहीं रही। स्वर्ग में जहाँ इतनी अप्सराएँ हैं, उनके रहते हुए भी इन्द्र को अहल्या के सौन्दर्य के प्रति आकर्षण हो गया, मर्त्यलोक के सौन्दर्य के प्रति स्वर्गलोक का अधिपति आकृष्ट हो गया।
भोगों को भोगने से तृप्ति हो जायेगी, ऐसी बात नहीं है और यही सत्य इन्द्र के जीवन में भी विद्यमान है। इन्द्र अपनी इच्छा पूरी करने के लिए इतना गिर गया कि वह गौतम का नकली वेश बना लेता है। इसका अभिप्राय यह है कि त्यागी बनकर भोग पाना जितना सरल है, उतना भोगी बनकर भोग पाना सरल नहीं है। यह बहुत बड़ा सूत्र है। आप त्यागी बन जाइए तो भोग सरलता से सामने आयेंगे। आप पैसा मत लीजिए तो लोग पैसों की ढेरी लगा देंगे। इसलिए भोग पाने के लिए त्यागी का वेश बनाया, गौतम का वेश बना लिया। अब प्रश्न आता है कि अहल्या ने इन्द्र को पहचाना कि नहीं?
सूक्ष्म बात यही है कि अहल्या को क्या पता नहीं था कि पतिदेव गौतम प्रातःकाल नहाने के लिए गये? और क्या बिना नहाये वापस लौट आये? और ब्रह्ममुहूर्त में इस प्रकार का प्रस्ताव करना क्या गौतम जैसे त्यागी महात्मा के लिए सम्भव प्रतीत होता है? उसे सोचना चाहिए कि हमारे पतिदेव तो ऐसे नहीं हैं। यदि उसने ऐसा नहीं सोचा तो यह बात स्पष्ट है कि उसके मन में भी कहीं न कहीं भोगों के प्रति आकर्षण था।
इसका अर्थ यह है कि कितना भी बुद्धिपूर्वक धर्म की बात कहिए, धर्म की दुहाई दीजिए, धर्म का पालन कीजिए, पर इतना होते हुए भी जब कभी विषयों का प्रबल आकर्षण आता है तो व्यक्ति देखकर भी अनदेखा कर देता है। देखा और अनदेखा कर दिया। वस्तुत: प्रत्येक धर्म के साथ यह समस्या जुड़ी हुई है।
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