लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

Like this Hindi book 0

भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


विचार करने पर श्री भरत की विचारधारा अधिक कल्याणकारी, अधिक पूर्ण और अधिक निरापद प्रतीत होती है। इस विचार का सबसे महत्वपूर्ण अंग यह है कि इसमें प्रेमी अपने लक्ष्य से क्षण भर को भी विचलित नहीं होता। क्योंकि वह माँगे चाहे जिससे, पर माँगता केवल “राम पद पदुम सनेहू” ही है साथ ही किसी की अवहेलना या तिरस्कार भी उसके द्वारा नहीं हो पाता। जिसके स्वभावतः प्रत्येक की सहानुभूति उसे प्राप्त रहती है। सहस्रों भावनाएँ प्रेम-पथ में उसकी सहायक बन जाती है। इसके लिए हम एक पतिव्रता स्त्री का दृष्टान्त ले सकते हैं। वह अनन्य भाव से पति-भक्त है। उसका तन-मन सब उसी के लिए है। पर पति के सम्बन्ध के नाते वह सास, ससुर, देवर आदि की भी सेवा करती है। हाँ उसका लक्ष्य पति प्रेम ही है – और यह निश्चित है कि ऐसा करने से उसके प्राण-वल्लभ को भी प्रसन्नता होगी। दूसरी ओर यदि वह दिन-रात्रि पति चिन्तन में ही निमग्न रहती है, उसकी सेवा छोड़ अन्य सम्बन्धियों से सम्बन्ध ही नहीं रखती, तो उसका परिणाम होगा कि वह पति-प्रिय तो होगी, पर पति के कर्तव्यपालन में सहायक न हो सकेगी। वह तो अपने गुरुजनों की सेवा करेगा यह असंदिग्ध है। पर पत्नी अपने व्रत पर दृढ़ रहते हुए भी पति के कार्यों में सहायक सिद्ध न हो सकेगी। उसका प्रेम अपनी निष्ठा को ही सँवारने में अधिक रहा, पति को विश्राम देने में नहीं। साथ ही पति को संकोच भी होगा उसके इस व्यवहार से। दोनों प्रकार की पतिव्रताएँ श्रेष्ठ हैं। पर प्रथम भावना कुछ अधिक कल्याणकारी जान पड़ती है। कहना न होगा कि भरत की विचारसारिणी प्रथम प्रकार की है। वे जप, तप, व्रत, तीर्थ, देवोपासना आदि सभी स्मार्त धर्मों का पालन करते हैं और सबसे केवल “राम-प्रेम” की याचना करते हैं। यह मार्ग सर्वसाधारण के लिए निरापद भी है, क्योंकि जहाँ प्रेम की उच्चतम अवस्था में स्मार्त धर्मों का त्याग हो जाना कोई आश्चर्यजनक नहीं, वहीं दूसरी ओर अनुकरण की चेष्टा में उच्छृंखलता वरण की ही संभावना है। जब “सर्व-धर्मों” के त्याग का उपदेश दिया जाता है, तब वह केवल उसके लिए जो अधर्मों का पूर्ण त्याग पहले ही कर चुका है। पर अधिकांश रूप में यह देखा जाता है कि अधर्म का त्याग तो होता नहीं – धर्म त्याग भले ही हो जाय। द्वितीय प्रकार की अनन्यता असाधारण अधिकारियों के लिए है, पर यदि उसका प्रयोग सर्वसाधारण करें, तो सर्वनाश निश्चित है। उससे ईर्ष्या-द्वेष दूसरों से भले ही हो जाय पर प्रेम होने से रहा। प्रथम प्रकार में इसकी कोई संभावना नहीं। अहंकार का तो वहाँ प्रवेश भी नहीं है। श्री भरत की विचारधारा निर्दोष गोदुग्ध है। जिसका पान सभी स्वस्थ-अस्वस्थ निस्संकोच रूप से कर सकते हैं। विचार की दृष्टि से तो यह विचारधारा अधिक संगत है नहीं, तब पूर्ण अनन्यता भी यही है। स्वयं श्री मुख से अनन्यता की परिभाषा प्रभु ने यही की है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book